________________ प्रस्तावना ___ 95 ___ इसके आगे धर्मोत्तर के उक्त मत के समर्थन में एक पूर्वपक्ष प्रारम्भ होता है, जिसका अन्त निम्नलिखित श्लोक के साथ होता है "वृद्धसेवाप्रसिद्धोऽपि ब्रुवन्नेवं विशङ्कितः / बालवत्स्यादुपालभ्यस्त्रैविद्यविदुषामयम् // 18 // " इस पूर्वपक्ष के कर्ता को ग्रन्थकार वृद्धधर्मोत्तरानुसारी बतलाते हैं। धर्मोत्तर के साथ संभवतः वृद्ध शब्द लगा देखकर ही मुनि जी ने दो धर्मोत्तरों के अस्तित्व की कल्पना की है। किन्तु इस पूर्वपक्ष के प्रारम्भ में और अन्त में उक्त कारिकाओं का देना रहस्य से खाली नहीं है। प्रारम्भ को कारिका में ग्रन्थकार घोषणा करता है कि आगे वाले पक्ष में वृद्धधर्मोत्तर का ही भाव कहा गया है। इस कारिका का पूर्वार्द्ध कुछ अशुद्ध सा प्रतीत होता है और उसका 'बलदेवबलं' पद कुछ खटकता. सा है, कारिका को बार बार पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि इन शब्दों में ग्रन्थकार ने वृद्धधर्मोत्तर के किसी शिष्य का नाम लिया है, जिसका अगला पूर्वपक्ष है / अन्तिम कारिका में इस पूर्वपक्ष के कर्ता को बाल बतलाकर उसके कथन को उपेक्षणीय दर्शाया है। यदि यह 'बालवत् उपालभ्य' व्यक्ति वही धर्मोत्तर है जिसके मत का उल्लेख करके उक्त चर्चा का प्रारम्भ किया गया है तो उस वृद्धधर्मोत्तर का क्या मत है, जिसका अनुसारी और सेवक इस धर्मोत्तर को कहा जाता है ? यदि धर्मोत्तर नाम के दो व्यक्ति हुए हैं और प्रकृतधर्मोत्तर से वृद्धधर्मोत्तर एक पृथक् व्यक्ति हैं तो ग्रन्थकार उनके इस विषयक मत को अवश्य ही जानता होगा; अन्यथा वह उनके अनुसारी के लिये इतनी तुच्छता के द्योतक शब्दों का प्रयोग न करता / और ऐसी परिस्थिति में वृद्धधर्मोत्तर से चर्चा का प्रारम्भ न कराके उसके एक तुच्छ अनुसारी से चर्चा का प्रारम्भ कराना किसी भी तरह उचित प्रतीत नहीं होता। ग्रन्थकार ने आगे भी कुछ स्थलों पर धर्मोत्तर का उल्लेख किया है, किन्तु वृद्धधर्मोत्तर का उल्लेख उक्त चर्चा के सिवा अन्यत्र नहीं किया। एक स्थल पर स्या० रत्नाकर में लिखा है-“एतेन यदपि धर्मोत्तरविशेषव्याख्यानकौशलाभिमानी देववलः प्राह / " इस लेख से स्पष्ट है कि देवबल नाम का कोई विद्वान धर्मोत्तर का कुशल व्याख्याकार हो गया है। लक्ष्य और लक्षण के विधेयाविधेय की उक्त चर्चा में वृद्धधर्मोत्तर के अनुसारी के पूर्वपक्ष का उल्लेख हम ऊपर कर आये हैं और 'बलदेवबलं स्वीयं' आदि कारिका को अशुद्ध बतलाकर उसमें वृद्धधर्मोत्तर के किसी शिष्य के नामनिर्देश का सङ्केत भी कर आये हैं। रत्नाकर के इस उल्लेख से हमारा उक्त मत निर्धान्त प्रमाणित होता है / पूर्वपक्ष की उक्त कारिका में धर्मोत्तर के व्याख्यानकौशलाभिमानी देवबल का ही नाम ग्रन्थकार ने दिया है और आगे का पूर्वपक्ष भी उसी का है। कारिका का 'बलदेवबलं' पद अशुद्ध है उसके स्थान में 'बलं देवबलः स्वीयं' पाठ उपयुक्त प्रतीत होता है। इस देवबल को बाल और वृद्धसेवापरायण बतलाकर उसका मखौल करने के लिये ही धर्मोत्तर को वृद्ध लिखा है। अतः प्रसिद्ध धर्मोत्तर ही वृद्धधर्मोत्तर हैं। उनके सिवा धर्मोत्तर नामका कोई दूसरा व्यक्ति नहीं हुआ है। __ हुरिभद्र सूरि के द्वारा उल्लिखित धर्मोत्तर प्रसिद्ध धर्मोत्तर से पृथक् व्यक्ति हैं, इस मत के समर्थन में मुनिजी ने दूसरा प्रमाण न्यायबिन्दुटीका के टिप्पणकार मल्लवादी का दिया 1 पृ. 775