________________ न्यायकुमुदचन्द्र धर्मोत्तर ने धर्मकीर्ति के प्रमाणविनिश्चय और न्यायबिन्दु पर टीका लिखी है। डाक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषण और डाक्टर कीथ उन्हें नवीं शताब्दी का विद्वान बतलाते हैं / डा. विद्याभूषण का अनुमान है कि बंगाल के राजा बनपाल ( ई० 847 ) के समय में धर्मोत्तर हुए हैं। रशियन पंडित चिरविट्स्की ( tcherbatsky) लिखते हैं कि ई० 800 में काश्मीर के राजा जया पीड़ ने धर्मोतर को आमंत्रित किया था ऐसा राजतरंगिणी 4-498 से प्रकट होता है। किन्तु राजतरङ्गिणी में उस स्थल पर केवल इतना ही लिखा है कि-" उसने स्वप्न में, पश्चिम दिशा में सूर्य का उदय होता देखा तो उसने समझा कि किसी नैयायिक ने ( Master of the law ) देश में प्रवेश किया है / " आर. एस. पंडित लिखते हैं कि यह नैयायिक चीनी यात्री ह्यून्त्सांग था। - जैनन्याय के ग्रन्थों का अवलोकन करने से प्रतीत होता है कि जैननैयायिकों में धर्मोत्तर और प्रज्ञाकर की अच्छी ख्याति थी, उन्होंने दोनों की रचनाओं का केवल अच्छा अध्ययन ही नहीं किया था बल्कि बौद्धदर्शन का जो कुछ ज्ञान जैन नैयायिकों ने प्राप्त किया था उसका अधिकतया आधार धर्मोत्तर और प्रज्ञाकर की रचनाएं ही थीं, यही कारण है कि प्रायः सभी प्रमुख जैननैयायिकों ने अपने ग्रन्थों में दोनों का उल्लेख किया है / 'हरिभद्रसूरि का समय निर्णय' शीर्षक निबन्ध में मुनि जिनविजय जी ने लिखा है कि हरिभद्र सूरि ने, जिनका समय बहुत ही प्रामाणिक आधारों पर मुनि जी ने ई० 700 से 770 तक सुनिश्चित किया है, धर्मोत्तर का उल्लेख किया है। किन्तु डाक्टर विद्याभूषण वगैरह ने धर्मोत्तर को 9 वीं शताब्दी का विद्वान माना था, अतः मुनि जी को लिखना पड़ा कि उस धर्मोत्तर से हरिभद्र के द्वारा उल्लिखित धर्मोत्तर कोई दूसरे ही व्यक्ति हैं। इस मत के समर्थन में मुनि जी ने वादिदेवसूरि के स्याद्वादरत्नाकर से एक प्रमाण भी खोज निकाला। पर रत्नाकर के उस प्रमाण का सूक्ष्म पर्यवेक्षण करने से पता चलता है कि मनि जी ने ग्रन्थकार के आशय को समझने में अवश्य ही धोखा खाया है / 'स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् ' सूत्र की व्याख्या में लक्ष्य और लक्षण के विधेयाविधेय की चर्चा का प्रारम्भ करते हुए ग्रन्थकार ने 'अत्राह धर्मोत्तरः' करके धर्मोत्तर के मत का निर्देश और उसकी आलोचना की है। यह धर्मोत्तर धर्मकीर्ति का टीकाकार प्रसिद्ध धर्मोत्तर ही है क्यों कि वादिदेवसूरि ने चर्चा के मध्य में उसकी न्यायविनिश्चयटीका और न्यायबिन्दुवृत्ति का उल्लेख किया है / रत्नाकर पृ० 20 पं० 3 से प्रारम्भ होकर पृ० 24 पं० 9 तक धर्मोत्तर की आलोचना करने के बाद ग्रन्थकार लिखते हैं 'बलदेववलं स्वीयं दर्शयन्ननिदर्शनम् वृद्धधर्मोत्तरस्यैव भावमत्र न्यरूपयत् // 17 // " 1 इन्डियन लॉजिक। 2 बु. लॉजिक / 3 बुद्धिस्ट लॉजिक / 4 राजतरङ्गिणी का आर. एस्. पंडितकृत अंग्रेजी अनुवाद। 5 पण्डित महाशय का यह लेख प्रामाणिक नहीं जान पड़ता क्योंकि चीनी यात्री ह्यून्त्सांग ई० 635 में नालन्दा आया था अतः राजा जयापीड़, जिसका राज्यकाल श्री युत पंडित ने 31 वर्षे लिखा है और जो ई० 751 में गद्दी पर बैठा था, के काल में ह्यून्त्सांग का अस्तित्व संभव नहीं है / 6 “यतो न्यायविनिश्चयटीकायां स्वार्थानुमानस्य लक्षणे"इति पर्युजानः' इति अनुमन्यमानश्चानुमापयसि स्वयमेव लक्ष्यस्यापि विधिम् / स्पष्टमेवाभिदधसि च न्यायबिन्दुवृत्तौ / " प्रमाणविनिश्चय के स्थान में भ्रमवश न्यायविनिश्चय पाठ हो गया जान पड़ता है /