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________________ प्रस्तावना 93 पाठक का भी यही मत है। अष्टसहस्रीकार ने इन कारिकाओं को सर्वज्ञता के पूर्वपक्ष में उद्धृत न करके उस कारिको की व्याख्या में उद्धृत किया है जिसमें अर्हत् को हो सर्वज्ञ बतलाया है, और लिखा है कि भट्ट का यह कहना ठीक नही है क्योंकि युक्ति और शास्त्र से अविरुद्ध बोलने के कारण अर्हत् ही सर्वज्ञ प्रमाणित होते हैं / _ विद्यानन्द के इस लेख से भी कुमारिल का आक्षेप समन्तभद्र और संभवतः अकलङ्क के भी सामान्य सर्वज्ञसाधन पर ही प्रतीत होता है। यदि इस आक्षेप के भागी अकलङ्क भी हैं, जैसा कि डाक्टर पाठक का मत है, तो कहना होगा कि कुमारिल का वह ग्रन्थ जिसमें उक्त आक्षेप किये हैं श्लोकवार्तिक की रचना के बाद रचा गया था, और उसे अकलङ्क नहीं देख सके थे। यदि यह कल्पना सत्य हो तो डाक्टर पाठक का यह मत, कि कुमारिल अकलङ्क के बाद तक जीवित रहे थे, सङ्गत बैठ जाता है। किन्तु सिद्धिविनिश्चय की सर्वज्ञसिद्धि में आक्षिप्त मन्तव्यों को दृष्टि में रखते हुए हम इसे मानने के लिये तैयार नहीं है। इस लम्बी चर्चा से स्पष्ट है कि कुमारिल और अकलङ्क के पारस्परिक सम्बन्ध की चर्चा इतिहास और दर्शनशास्त्र के प्रेमियों के लिये आनन्द की वस्तु है। - अकलंक और शान्तभद्र-मानसैप्रत्यक्ष की आलोचना में अकलङ्क ने लिखा है कि बौद्धों के मानसप्रत्यक्ष और स्वसंवेदनप्रत्यक्ष में कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता। आगे की कारिका में लिखा है-यदि कहा जायेगा कि मानसप्रत्यक्ष के बिना इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थ में विकल्प ज्ञान नहीं हो सकता 'आदि / अकलङ्क के टीकाकार वादिराज आगे की कारिका में प्रदर्शित उक्त मत को शान्तभद्र का मत बतलाते हैं / अकलङ्क के दूसरे टीकाकार अनन्तवीर्य के लेख से भी ऐसा प्रतीत होता है कि अकलङ्क ने शान्तभद्र का खण्डन किया है। शान्तभद्र नाम के किसी बौद्धाचार्य का उल्लेख राहुल जी के द्वारा संकलित ग्रन्थकारों की सूची में नहीं है और न किसी अन्यस्रोत से ही उनके नाम का परिचय मिलता है। हाँ, डा कीथ ने उनका उल्लेख अवश्य किया है और उन्हें सातवीं शताब्दी का विद्वान् बतलाया है किन्तु उनके किसी ग्रन्थ का परिचय नहीं दिया / यदि सातवीं शताब्दी में शान्तभद्र नाम के कोई आचार्य हुए हैं तो संभव है कि अकलङ्क ने उन्हें भी देखा हो। किन्तु यदि वे उसके बाद में हुए हैं तो यही मानना होगा कि अकलङ्क के टीकाकारों ने कोई बात, जिसका उल्लेख अकलङ्क ने किया था, उनके ग्रन्थों में देखकर उसे शान्तभद्र का मत समझ लिया है / जैसा कि आगे के उल्लेखों से स्पष्ट होगा। धर्मोत्तर, प्रज्ञाकर तथा अकलङ्क-अकलंक के टीकाकारों के विवेचन से प्रकट होता है कि धर्मोत्तर और प्रज्ञाकर के मत का भी अकलङ्क ने खण्डन किया है / धर्मकीर्ति और अकलङ्क का पारस्परिक सम्बन्ध बतलाते हुए हम दिखला आये हैं कि अकलङ्क ने धर्मकीर्ति के ग्रन्थों का, खासकर प्रमाणवार्तिक और प्रमाणविनिश्चय का अच्छा आलोडन किया था और उनके मतों की भी अच्छी आलोचना की थी। धर्मोत्तर और प्रज्ञाकर धर्मकीर्ति के प्रकरणों के ख्यातनामा टीकाकार हुए हैं। प्रमाणवार्तिक पर आठ विद्वानों ने टीकाएँ लिखी हैं किन्तु उनमें प्रज्ञाकर के वार्तिकालङ्कार ने जो ख्याति पाई वह अन्य किसी को भी प्राप्त न हो सकी / धर्मकीर्ति के परिवार में ये दोनों ही ग्रन्थकार विशेषतया ख्यात हैं। 1 आप्तमी० का०६। 2 न्यायविनिश्चयविवरण पृ० 388-89 / कारि० 1-157, 158 / 3 सिद्धिविनिश्चयटीका पृ० 109 उ०। 4 बुद्धिस्ट लांजिक। 5 देखो, वादन्याय के परिशिष्ट /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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