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________________ 92 न्यायकुमुदचन्द्र इसी की प्रतिध्वनि अकलङ्क के निम्न वाक्य से होती है-“तदेवं प्रमेयत्वसत्त्वादिर्यत्र हेतु. लक्षणं पुष्णाति तं कथं चेतनः प्रतिषे महति संशयितुं वा / " अर्थात्-"जहाँ प्रमेयत्व, सत्त्व आदि हेतु प्रकृत हेतु के स्वरूप का पोषण करते हैं, कोई चेतन उसका प्रतिषेध या उसके अस्तित्व में संशय कैसे कर सकता है?" यद्यपि दोनों वाक्य ऐसी स्थिति में हैं कि यह निश्चय कर सकना अशक्य है कि कौन किसको उत्तर देता है। फिर भी अष्टशती का पर्यवेक्षण करने से ऐसा ही प्रतीत होता है कि कुमारिल के कथन की प्रकारान्तर से प्रतिध्वनि अकलङ्क के वाक्य में गूंजती है / क्योंकि समन्तभद्र ने सर्वज्ञ की सिद्धि में 'अनुमेयत्व' हेतु दिया था / अकलङ्क ने प्रमेयत्व सत्त्व आदि हेतुओं को जो उसका समर्थक बतलाया है वह अकारण नहीं जान पड़ता। अवश्य ही उनकी दृष्टि में कुमारिल का उक्त वाक्य होगा और उसी का निराकरण करने के लिये उन्हें इन हेतुओं को 'अनुमेयत्व' का पोषक बतलाना पड़ा। इसके अतिरिक्त कुमारिल ने वेद को अपौरुषेय सिद्ध करने के लिये 'वेदाध्ययनवाच्यत्व' हेतु का उपयोग किया है / अष्टशती में अकलङ्क ने उसका भी खण्डन किया है। ऐसा मालूम होता है कि श्लोकवार्तिक से अतिरिक्त भी कुमारिल का कोई ग्रन्थ था या है जिसमें सर्वज्ञ का खण्डन किया गया है / क्योंकि सर्वज्ञ के खण्डन में जैन और बौद्ध ग्रन्थकारों ने जो बहुत सी कारिकाएँ उद्धृत की हैं, वे श्लोकवार्तिक में नहीं मिलतीं किन्तु उनकी शैली कुमारिल के जैसी ही है। और कोई कोई उन्हें भट्ट के नाम से उद्धृत करते हैं। शान्तरक्षित के तत्त्वसंग्रह में इस प्रकार की अनेक कारिकाएँ हैं। उन कारिकाओं में से पांच कारिकाएँ निम्नप्रकार हैं"नरः कोऽप्यस्ति सर्वज्ञः तत्सर्वज्ञत्वमित्यपि / साधनं यत्प्रयुज्येत प्रतिज्ञान्यूनमेव तत् // 3230 // सिसाधयिषितो योऽर्थः सोऽनया नाभिधीयते / यत्तूच्यते न तत्सिद्धौ किञ्चिदस्ति प्रयोजनम् / / 3231 // यदीयागमसत्यत्वसिद्धयै सर्वज्ञतोच्यते / न सा सर्वज्ञ सामान्यसिद्धिमात्रेण लभ्यते // 3232 // यावद् बुद्धो न सर्वज्ञस्तावत्तद्वचनं मृषा / यत्र क्वचन सर्वज्ञे सिद्धे तत्सत्यता कुतः॥३२३३॥ अन्यस्मिन्नहि सर्वज्ञे वचसोऽन्यस्य सत्यता / सामानाधिकरण्ये हि तयोरङ्गाङ्गिता भवेत् // 3234 // " _ 'तदुक्तं भट्टेन' करके ये कारिकाएँ अष्टसँहस्री में भी उद्धृत हैं। स्वामी समन्तभद्र ने सर्वज्ञता का साधन करते हुए 'कस्यचित्' शब्द का प्रयोग किया है / अर्थात् कोई पुरुष सर्वज्ञ है। इसी तरह अकलङ्क ने भी अर्हत आदि को सर्वज्ञ सिद्ध न करके सामान्यतया ही सर्वज्ञ का साधन किया है। तत्त्वसंग्रह के व्याख्याकार कमलशील ने उक्त कारिकाओं की उत्थानिका में लिखा है-“येऽपि मन्यन्ते-नास्माभिः शृङ्गग्राहिकया सर्वज्ञः प्रसाध्यते, किं तर्हि ? सामान्येन सम्भवमानं प्रसाध्यते-अस्ति कोऽपि सर्वज्ञः, कचिद्वा सर्वज्ञत्वमस्ति, प्रज्ञादीनां प्रकर्षदर्शनात् इति, तान् प्रतीदमाह-'नर' इत्यादि / " इससे स्पष्ट है कि कुमारिल ने उक्त कारिकाएँ न केवल जैनों को लक्ष्य करके लिखी हैं बल्कि समन्तभद्र और संभवतः अकलङ्क को लक्ष्य करके लिखी हैं क्योंकि उन्होंने सर्वज्ञविशेष की सिद्धि न करके सर्वसामान्य की सिद्धि की थी। डाक्टर 1 अष्टसहस्री पृ०५८। 2 अष्टसहसी पृ० 237 / 3 देखो-अतीन्द्रियार्थदर्शी पुरुषपरीक्षा / ४पृ. 75 / 5 भाप्तमीमांसा का० 5 / 6 पृ. 841 /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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