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________________ प्रस्तावना हो, तो भी जनसमूह उसकी सर्वज्ञता की प्रतीति किस प्रकार कर सकता है ? अनुमान से सर्वज्ञ की सिद्धि को अशक्य बतलाकर कुमारिल आगम पर आते हैं। आगम के उन्होंने दो भेद किये हैं-एक अनित्यआगम और दूसरा नित्यआगम। अनित्यआगम का प्रत्याख्यान * करके नित्यआगम का प्रत्याख्यान किया है। स्पष्टीकरण के लिये यहां कुछ कारिकाएं उद्धृत की जाती हैं"सर्वज्ञोऽसाविति ह्येव तत्काले तु बुभुत्सुभिः / तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम् // 134 // कल्पनीयाश्च सर्वज्ञा भवेयुर्बहवस्तव / य एव स्यादसर्वज्ञः स सर्वशं न बुध्यते // 135 // सर्वज्ञोऽनवबुद्धश्च येनैव स्यान्न तं प्रति / तद्वाक्यानां प्रमाणत्वं मूलाज्ञानेऽन्यवाक्यवत्॥१३६॥ रागादिरहिते चास्मिन् नुर्व्यापारे व्यवस्थिते / देशनान्यप्रणीतैव स्यादृते प्रत्यवेक्षणात् // 137 // सान्निध्यमात्रतस्तस्य पुंसश्चिन्तामगेरिव / निस्सरन्ति यथाकामं कुड्यादिभ्योऽपि देशनाः // 138 // एवमाधुच्यमानन्तु श्रद्दधानस्य शोभते / कुड्यादिनिसृतत्वाच नाश्वासो देशनासु नः॥१३९॥ किन्तु बुद्धप्रणीताः स्युः किमु कैश्चिदुरात्मभिः। अदृश्यैर्विप्रलम्भार्थ पिशाचादिभिरीरिताः॥१४०॥ एवं यः केवलज्ञानमिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः / सूक्ष्मातीतादिविषयं जीवस्य परिकल्पितम् // 141 // नर्ते तदागमात्सिद्ध्येन्न च तेनागमो विना। दृष्टान्तोऽपि न तस्यान्यो नृषु कश्चित् प्रवर्तते // 142 // नित्यागमावबोधोऽपि प्रत्याख्येयोऽनया दिशा / न हि तत्रापि विसूम्भो दृष्टोऽनेन कृतोऽथवा॥१४३॥ सर्वदा चापि पुरुषाः प्रायेणानृतवादिनः / यथाद्यत्वे न विसम्भस्तथाऽतीतार्थकीर्तने // 144 // " चोदनासूत्र / अतः डाक्टर पाठक की यह धारणा भी, कि कुमारिल ने अकलङ्क की अष्टशती के उक्त वाक्य पर आक्रमण किया है, असङ्गत प्रतीत होती है। क्योंकि अष्टशती के उक्त वाक्य और कुमारिल के कटाक्ष का परस्पर में कोई सम्बन्ध नहीं जान पड़ता, और न उससे वह आशय ही निकलता है जो डाक्टर पाठक निकालना चाहते हैं। अपौरुषेय वेदवाक्य को प्रामाण्य सिद्ध करते हुए कुमारिल सर्वज्ञवादियों के मत की आलोचना करते हैं और उसी सम्बन्ध में जैनों के केवलज्ञान को आगमाश्रित बतलाकर इतरेतराश्रय दोष देते हैं। जैनदर्शन में केवलज्ञान की मान्यता अति प्राचीन है। उसका सम्बन्ध न तो केवल अष्टशतीकार से ही है और न आप्तमीमांसाकार से, अतः उसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि कुमारिल ने अमुक जैनाचार्य के मत पर आक्रमण किया है। उनका आक्रमण जैनों की सर्वज्ञ की मान्यता के मूल आधारभूत उस केवलज्ञान पर है, जिसका धारक सर्वज्ञ और जैन आगम का सर्जक कहा जाता है / ' अकलङ्क ने कुमारिल के श्लोकवार्तिक को देखा था, इस के समर्थन में एक अन्य भी प्रमाण मिलता है / कुमारिल के उक्त प्रकरण में एक कारिका इस प्रकार है “प्रत्यक्षाद्यविसंवादि प्रमेयत्वादि यस्य च / सद्भाववारणे शक्तं को नु तं कल्पयिष्यति // 132 // " "जिस सर्वज्ञ के सद्भाव का निराकरण करने के लिये प्रमेयत्व आदि हेतु मौजूद हैं उस सर्वज्ञ को कौन स्वीकार करेगा ?"
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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