SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न्यायकुमुदचन्द्र है क्यों कि इस प्रकार का ज्ञान आगम प्रमाण से सम्बन्ध रखता है / अतः आगम का प्रामाण्य सिद्ध हो तो उक्त ज्ञान या उसका धारक सर्वज्ञ सिद्ध हो, और सर्वज्ञ सिद्ध हो तो आगम का प्रामाण्य सिद्ध हो। अत: इतरेतराश्रय होने के कारण दोनों में से किसी की भी सिद्धि नहीं हो सकती।" __ डाक्टर के० बी० पाठक का कहना है कि अकलंक की उक्त अष्टशती पर ही आक्षेप करते हुए कुमारिल ने इतरेतराश्रय दोष दिया है / अकलंक कहते हैं कि इस प्रकार का स्तवन आगमाश्रय है। उस पर कटाक्ष करते हुए कुमारिल कहते हैं कि केवल इस प्रकार का स्तवन ही आगमाश्रय नहीं है किन्तु किसी को सर्वज्ञ मानना भी आगमाश्रय ही है। डाक्टर पाठक की इस धारणा के सम्बन्ध में कुछ कहने से पहले हम उनका यह भ्रम दूर कर देना आवश्यक समझते हैं कि अकलंक ने इस आक्षेप का उत्तर नहीं दिया। हम पहले लिख आये हैं कि डाक्टर पाठक को अकलंक के न्यायविनिश्चय को देखने का अवसर नहीं मिला / न्यायविनिश्चय के तीसरे प्रस्ताव में कुमारिल के उक्त आक्षेप का ही समाधान नहीं है किन्तु कुमारिल की उक्त कारिका भी परिवर्तन के साथ मौजूद है। अकलंक लिखते हैं " एवं यत्केवलज्ञानमनुमानविजम्भितम् / नर्ते तदागमात् सिद्धयेन च तेन विनागमः // 26 // सत्यमर्थबलादेव पुरुषातिशयो मतः / प्रभवः पौरुषेयोऽस्य प्रबन्धोऽनादिरिष्यते // 27 // " अर्थात्-"आगम में उपदिष्ट सम्यग्दर्शनादि के अभ्यास के बिना केवलज्ञान की सिद्धि (प्राप्ति ) नहीं हो सकती और केवलज्ञान के बिना आगम की सिद्धि ( निष्पत्ति ) नहीं हो सकती, यह बात सत्य है, क्यों कि आगमज्ञान के बल से ही पुरुष में केवलज्ञानादिरूप अति. शय प्रकट होता है और उस अतिशय से आगम का प्रभव होता है / सर्वज्ञ और आगम की सन्तान अनादि है।" __हमें दुःख है कि डाक्टर पाठक अब जीवित नहीं हैं। यदि वे होते और उन्हें अपने भ्रम का पता चलता तो कुमारिलविषयक अपनी खोज में उन्हें स्वयं परिवर्तन करने का अवसर मिल जाता। डाक्टर पाठक लिखते हैं कि कुमारिल के उक्त आक्षेप का परिहार विद्यानन्द और प्रभाचन्द्र ने किया है। विद्यानन्द और प्रभाचन्द्र ने कुमारिल की सर्वज्ञविरोधी कारिकाओं की खूब आलोचना की है, यह सत्य है। किन्तु कुमारिल के उक्त आक्षेप ‘एवं यैः केवलज्ञान' आदि की प्रभाचन्द्र के ग्रन्थों में तो गन्ध तक भी नहीं है। हाँ, विद्यानन्द ने 'ततो यदुपहसनमकारि भट्टेन-एवं यैः केवलज्ञान * 'तदपि परिहृतम्' इतना अवश्य लिख दिया है। श्लोकवार्तिक के जिस प्रकरण में उक्त कारिकाएं मौजूद हैं, उसका पूर्वापर आलोचन करने से मालूम होता है कि कुमारिल ने केवल जैनों की ही सर्वज्ञविषयक मान्यता को आगमाश्रय घोषित नहीं किया, किन्तु उन्होंने बौद्धों की मान्यता को भी 'एवमाद्युच्यमानन्तु श्रद्दधानस्य शोभते ' लिखकर श्रद्धापरक ही बतलाया है। उनका तो कहना यह है कि यदि कोई सर्वज्ञ 1 तत्वार्थश्लोक० पृ० 253 /
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy