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________________ प्रस्तावना स्फोटवाद का खण्डन करते हुए अकलंक ने उक्त तीनों पक्षों की आलोचना की है। और भर्तृहरि ने पृथिवी की गन्ध के लिये उदक और आंख के लिये अंजन का जो दृष्टान्त दिया है उनका भी उल्लेख किया है। तथा एक अन्य प्रकरण में वाक्यपदीय की एक कारिका भी उद्धृत की है। ___कुमारिल और अकलंक-कुमारिल के सम्बन्ध में डाक्टर के० बी० पाठक का विशाल अध्ययन था। उन्होंने इस सम्बन्ध में कई खोजपूर्ण निबन्ध लिखे थे। उनका प्रसिद्ध निबन्ध 'दिगम्बर जैन साहित्य में कुमारिल का स्थान' देखने का सौभाग्य हमें प्राप्त नहीं हो सका, किन्तु 'कुमारिलें को कारिकाएँ जैन और बौद्ध मत पर आक्रमण करती हैं ' तथा 'समन्तभद्र और अकलंक पर कुमारिल के आक्रमण का उल्लेख शान्तरक्षित करता है' शीर्षक उनके अन्य दो लेख हमें पढ़ने को मिले और 'दिगम्बर जैन साहित्य में कुमारिल का स्थान' शीर्षक निबन्ध के कुछ नोट्स भी पं० जुगुलकिशोर जी मुख्तार की कृपा से प्राप्त हो सके, जो उन्होंने अपने दृष्टिकोण से लिये थे। अपने इन लेखों में डाक्टर पाठक ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि अकलंक की अप्रशती पर कमारिल ने कटाक्ष किया है, और यतः अकलंक का अवसान कुमारिल से पहले हुआ और कुमारिल उनके बाद भी जीवित रहे, अतः अकलंक को कुमारिल के आक्षेपों के निराकरण करने का अवसर नहीं मिला। अकलंक के पश्चात् उनके शिष्य विद्यानन्द और प्रभाचन्द्र ने यह कार्य किया। समन्तभद्र की आप्तमीमांसा की पहली कारिका की विवृति में अकलंक ने लिखा है"आज्ञाप्रधाना हि त्रिदशागमादिकं परमेष्ठिनः परमात्मचिह्न प्रतिपोरन , नास्मदादयः, ताहशो मायाविष्वपि भावात् , इत्यागमाश्रयः / " अर्थात-"आज्ञाप्रधान पुरुप ही देवताओं के आगमन वगैरह को परमात्मपद का चिह्न मान सकते हैं, किन्तु हमारे सरीखे परीक्षाप्रधान इन बातों को परमात्मत्व का चिह्न नहीं मान सकते, क्यों कि ये बातें तो मायाविजनों में भी देखी जाती है। अतः देवागमन, आकाश गमन आदि हेतुओं के आधार पर जिनेन्द्र को परमात्मा कहना आगमसङ्गत हो सकता है, किन्तु युक्तिसंगत नहीं हो सकता।" उधर जैनों के केवलज्ञान का खण्डन करते हुए कुमारिल लिखते हैं एवं यैः केवलं ज्ञानमिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः / सूक्ष्मातीतादिविषयं जीवस्य परिकल्पितम् // 141 // नते तदागमात्सिध्येन च तेनागमो विना / दृष्टान्तोऽपि न तस्यान्यो नषु कश्चित् प्रवर्तते // 142 // " अर्थात्-“कुछ वादियों ने जीव के केवलज्ञान माना है। यह ज्ञान इन्द्रियादि की अपेक्षा से नहीं होता और सूक्ष्म, अतीत आदि विषयों को जानता है। किन्तु यह मान्यता ठीक नहीं 1 राजवातिक पृ० 231 / 2 वाक्यपदीय 1-80, 81 / 3 राजवा० पृ. 40 / 4 'शास्त्रेषु प्रक्रियाभेदैरविद्येवोपवर्ण्यते / / 2-235 / 5 भ० प्रा०वि० की पत्रिका, जिल्द 12, पे० 123-131 / 6 भ० प्रा० वि० पत्रिका जि० 11 पे० 155 से / 12
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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