________________ न्यायकुमुदचन्द्र ___उक्त तुलना से स्पष्ट है कि अकलंक ने धर्मकोर्ति का अच्छा अध्ययन किया था और उनकी ही शैली के आधार पर अपने प्रकरणों की रचना करके धर्मकीर्ति के प्रायः सभी मुख्य मुख्य मन्तव्यों की आलोचना की थी। ___भर्तृहरि और अकलंक-धर्मकीर्ति के ही समय में प्रसिद्ध वैयाकरण भर्तृहरि हो गये हैं / ये शब्दाद्वैतवादी थे। इनका रचा वाक्यपदीय ही इस समय इस मत का मूलग्रन्थ माना जाता है। शब्दाद्वैतवादियों का मत है कि शब्दब्रह्म ही परम तत्त्व है, अविद्यावासना के कारण भेद को प्राप्त होकर वही अर्थरूप में विभाजित होता है। वस्तुतः वाचक से भिन्न वाच्य है ही नहीं। ज्ञान भी शब्दात्मक ही है। जैसा कि लिखा है “न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यःशब्दानुगमादृते / __ अनुविद्धमिव ज्ञानं सर्व शब्देन भासते // 1-124 // " वा० 50 अर्थात् “लोक में ऐसा कोई ज्ञान ही नहीं है जो शब्दसंसर्ग के बिना हो सके। सब ज्ञान शब्द से अनुविद्ध ही भासते हैं।" . अकलंक के न्याय का परिचय कराते समय हम लिख आये हैं कि अकलंक ने शब्दसंश्लिष्ट ज्ञान को श्रुत और शब्दसंसर्ग से रहित इन्द्रियज्ञान को मति निर्धारित किया था। किन्तु यह बात आगमिक परम्परा के विरुद्ध थी क्योंकि जैन शास्त्रों में श्रुतज्ञान का सम्बन्ध केवल कर्णेन्द्रिय से ही नहीं बतलाया है बल्कि शेष चार इन्द्रियों से भी बतलाया है। इस लिए आचार्य विद्यानन्द को अकलंक के उक्त मत में आशङ्का प्रकट करने की आवश्यकता प्रतीत हुई, क्योंकि अकलङ्क जैसे समन्वयकर्ता से उन्हें यह आशा नहीं हो सकती थी कि वे बिना किसी हेतु के पुरानी व्याख्या में सुधार कर सकते हैं। आशङ्का का समाधान करते हुए अकलंक के वेत्ता विद्यानन्द ने ज्ञानों को दो भागों में विभाजित करने की अकलङ्क की दृष्टि को पहचान ही तो लिया। भर्तृहरि की उक्त कारिका को उद्धृत करके वे लिखते हैं कि 'शब्द संसर्ग के बिना ज्ञान हो ही नहीं सकता' इस एकान्तवाद का निराकरण करने के लिये ही अकलंक ने ज्ञान के दो विभाग किये थे। उनका कहना था कि यह कोई आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक ज्ञान शब्दसंश्लिष्ट ही हो, शब्दसंसर्ग के बिना भी ज्ञान होता है। __ अन्य वैयाकरणों की तरह भर्तृहरि भी स्फोटवादी थे। स्फोटवादियों का मत है कि क्षणिक होने के कारण ध्वनि से अर्थ का बोध नहीं हो सकता, अतः ध्वनि नित्य शब्दात्मा को अभिव्यक्ति करती है और उससे अर्थबोध होता है। उसी अभिव्यङ्ग्य शब्दात्मा को स्फोट कहते हैं। भर्तृहरि ने इस अभिव्यक्तिवाद में तीन मत बतलाये हैं। यथा " इन्द्रियस्यैव संस्कारः शब्दस्यैवोभयस्य वा / क्रियते ध्वनिभिर्वादास्त्रयोऽभिव्यक्तिवादिनाम् // 79 // " अर्थात् "कुछ अभिव्यक्तिवादियों का मत है कि ध्वनि इन्द्रियों का ही संस्कार करती है, कुछ का मत है कि शब्द का ही संस्कार करती है, और कुछ का कहना है कि उभय का संस्कार करती है।" 1 त० श्लोकवार्तिक पृ० 239-240