________________ प्रस्तावना धर्मकीर्ति दो निग्रहस्थान मानते हैं-असाधनाङ्गवचन और अदोषोद्भावन। वादन्याय का प्रारम्भ करते हुए वे लिखते हैं " असाधनांगवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः / निग्रहस्थानमन्यत्तु न युक्तमिति नेष्यते // " अकलंक इसका खण्डन करते हुए लिखते हैं "असाधनांगवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः / न युक्तं निग्रहस्थानमर्थापरिसमाप्तितः // 2-208 // " प्रमाणविनिश्चय में धर्मकीर्ति लिखते हैं "सहोपलम्भनियमादभेदो नीलतद्धियोः / " अकलंक उसका खण्डन करते हैं “सहोपलम्भनियमानाभेदो नीलतद्धियोः / " उक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्मकीर्ति के प्रकरणों को अकलंक ने खूब आलोचना की है। क्वचित् क्वचित् ऐसे स्थल भी दृष्टिगोचर होते हैं जहाँ अकलंक ने धर्मकीर्ति की युक्तियों को अपनाया है। जैसे, जन्मान्तरसिद्धि के प्रकरण में धर्मकीर्ति ने लिखा है " अविकृत्य हि यद्वस्तु यः पदार्थो विकार्यते / उपादानं न तत्तस्य युक्तं गोगवयादिवत् // 61 // बुद्धिव्यापारभेदेन निहतातिशयावपि / प्रज्ञादेर्भवतो देहनि हासातिशयर्विना // 73 // " प्रमा० वा० 1 परि० / अकलंक भी लिखते हैं " प्रमितेऽप्य प्रमेयत्वाद् विकृतरविकारिणी / निसिातिशयाभावानिहीं सातिशये धियः // 2-73 // " बौद्ध अवयवी को नहीं मानते। अतः अवयवी का खण्डन करते हुए धर्मकीर्ति ने लिखा है कि यदि कोई एक अवयवी है नो उसके एक देश में कम्पन होने से पूर्ण अवयवी में कम्पन होना चाहिये / एक देश में आवरण होने से पूरा अवयवी आवृत और अनावृत होने से अनावृत होना चाहिये / यथा “पाण्यादिकम्पे सर्वस्य कम्पप्राप्तेविरोधिनः / x x x एकस्य चावृतौ सर्वस्यावृतिः स्यादनावृतौ / दृश्येत रक्ते चैकस्मिन् रागोऽरक्तस्य वाऽगतिः / " इन्हीं युक्तियों से अनेकान्त का समर्थन करते हुए अकलंक लिखते हैं "एक चलं चलै न्यैर्नष्टैनष्टं न चापरैः / आवृतमावृतैर्भागै रक्तै रक्तं विलोक्यते // 2-101 // "