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________________ न्यायकुमुदचन्द्र अवशिष्ट विप्रतिपत्तियों का निराकरण अकलङ्क के उपयुक्त निर्धारित समय में धर्मकीर्ति, भर्तृहरि, कुमारिल और प्रभाचन्द्र को लेकर कुछ विप्रतिपत्तियां अवशेष रह जाती हैं। जिनका आभास डाक्टर के० बी० पाठक के विविध लेखों में मिलता है। अतः अकलङ्क के निर्धारित समय को विवादरहित करने के लिये उनका दूर करना आवश्यक प्रतीत होता है। सातवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भर्तृहरि नाम के एक प्रसिद्ध वैयाकरण हो गये हैं। चीनी यात्री इत्सिंग के उल्लेख के आधार पर ई० 650 में उनकी मृत्यु हुई थी। अकलंक ने उनके वाक्यपदीय नामक ग्रन्थ से एक कारिका उद्धृत की है यह हम बतला चुके हैं। कुमारिल ने भी अपने तंत्रवार्तिक के प्रथम प्रकरण में पाणिनि, कात्यायन और पतञ्जलि के साथ साथ भर्तृहरि के ऊपर भी आक्षेप किये हैं। और वाक्यपदीय में से अनेक श्लोकों को उद्धृत करके उनकी तीव्र आलोचना की है। इस पर डाक्टर पाठक लिखते हैं कि-"मेरे विचार से यह तो स्पष्ट है कि कुमारिल के समय में व्याकरणशास्त्र के ज्ञाताओं में भर्तृहरि भी एक विशिष्ट प्रमाणभूत विद्वान माने जाते थे / भर्तृहरि अपने जीवनकाल में तो इतने प्रसिद्ध हुए ही नहीं होंगे कि जिससे पाणिनिसम्प्रदाय के अनुयायी उन्हें अपने सम्प्रदाय का एक आप्तपुरुष समझने लगे हों और अतएव पाणिनि और पतञ्जलि के साथ वे भी महान् मीमांसक की समालोचना के निशान बने हों। इसी कारण से हुएन्त्सांग, जिसने ई० स० 629-645 के बीच में भारतभ्रमण किया था, उसने इनका नाम तक नहीं लिखा / परन्तु इत्सिंग, जिसने उक्त समय से जैनसाहित्य में ग्रन्थों के विनिश्चयान्त नाम बौद्धसाहित्य के अन्यतम निर्माता धर्मकीर्ति के ऋणी हैं। अतः अकलंक के सिद्धिविनिश्चय के सिवाय किसी श्वेताम्बर विद्वान् के द्वारा रचित सिद्धिविनिश्चय की कल्पना करना तो बिल्कुल असंगत ही प्रतीत होता है। रह जाता है श्वेताम्बरसाहित्य में, और वह भी सिद्धसेन के सन्मतितर्क से पहले, सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख होना। सो सिद्धिविनिश्चय की महत्ता तथा उसमें साम्प्रदायिक चर्चा न होकर इतर दर्शनों का निरसनपूर्वक जैनदर्शन के मन्तव्यों के विनिश्चय को देखते हुए असंगत नहीं जान पड़ता। हम लिख आये हैं कि इस ग्रन्थ का श्वेताम्बर आचार्यों में काफी प्रचार था और वे उसपर मुग्ध थे। अतः उनकी गुणग्राहकता और स्वदर्शनप्रेम ने यदि सिद्धिविनिश्चय को उक्त सन्मान, जिसके वह सर्वथा योग्य था, प्राप्त करा दिया हो तो कोई अचरज की बात नहीं है। निशीथचूर्णि में सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख होने पर एक आपत्ति यह की गई है कि अकलंक जिनदासमहत्तर के बहुत बाद हुए हैं। किन्तु यह आपत्ति उसी समय तक संगत थी जब तक अकलंक को आठवीं शताब्दी का विद्वान् माना जाता था; उनके सातवीं शताब्दी का विद्वान् प्रमाणित होने पर उक्त आपत्ति को स्थान नहीं रहता। उक्त आपत्तियों को देख कर कुछ विद्वान् कल्पना करते हैं कि निशीथचूर्णि का उक्त उल्लेख प्रक्षिप्त है और संभवतः वह जीतकल्पचूर्णि की चन्द्रसूरिरचित टीका से वहाँ आघुसा है, क्योंकि दोनों की शब्दरचना बिल्कुल मिलती है। किन्तु हमारा विश्वास है कि उक्त वाक्य निशीथचूर्णि का ही होना चाहिये और वहीं से उसे चन्द्रसूरि ने अपनी टीका में लिखा है। क्योंकि चूर्णि की रचना संस्कृत और प्राकृत में की जाती थी और उक्त वाक्य में इसकी गन्ध मौजूद है, किन्तु चूर्णि की संस्कृत टीका में इस प्रकार का वाक्य मौलिक नहीं हो सकता। अतः हम तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि निशीथचूर्णि का उक्त वाक्य प्रक्षिप्त नहीं है और उसमें जिस सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख है, वह अकलंककृत सिद्धिविनिश्चय के सिवाय कोई अन्य ग्रन्थ नहीं है। ... 1 ‘भर्तृहरि और कुमारिल' शीर्षक लेख में। खोजने पर भी यह लेख हमें नहीं मिल सका। मुनि जिनविजयजी के 'हरिभद्रसूरि का समयनिर्णय' शीर्षक निबन्ध से उसके उद्धरण लिये हैं।
SR No.004326
Book TitleNyayakumudchandra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year1938
Total Pages598
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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