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________________ 56 प्रस्तावना अपराजित की सत्ता ई०८२१ में होना असंभव नहीं। और सुमति के गुरु मल्लवादी की , सत्ता ई० 700-750 के बीच संभव हो सकती है। न्यायबिन्द्र के मल्लवादिकृत टिप्पण में धर्मोत्तर से पूर्व काल में रचित न्यायबिन्दू की टीका के उल्लेख तो मिलते हैं किन्तु धर्मोत्तर कृत न्यायबिन्दु टीका की अन्य अनुटीकाओं का उल्लेख नहीं। इससे यह सूचित हो सकता है कि धर्मोत्तर और मल्लवादी के बीच अधिक काल का अन्तर नहीं। अतएव मल्लवादी का समय ई० 700-750 के बीच माना जा सकता है और वह उक्त रीति से तत्त्वसंग्रह और उक्त ताम्रपत्र से भी संगत हो जाता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि यदि मल्लवादी नामक टिप्पणकार जैन हैं तो वे . उक्त ताम्रपट्ट में उल्लिखित मल्लवादी ही हो सकते हैं। किन्तु नयचक्र के कर्ता मल्लवादी तो किसी भी प्रकार से टिप्पणकार संभव ही नहीं है, क्योंकि नयचक्र ग्रन्थ की आन्तरिक परीक्षा से यह सिद्ध होता है कि वे आचार्य दिग्नाग और धर्मकीर्ति के बीच हुए हैं। ग्रन्थ में कई बार आचार्य दिग्नाग का उल्लेख है किन्तु कुमारिल या धर्मकीर्ति का एक बार भी उल्लेख नहीं है। अतएव उनका परंपरामान्य समय वीर संवत् 884 संगत ही है। आचार्य दिग्नाग का समय डॉ० भट्टाचार्य ने ई० 345-425 ई० माना है। और वीर सं० 884 में मल्लवादी ने बौद्धों से वाद किया ऐसा उल्लेख है। तदनुसार उक्त वाद का समय ई० 347 आता है। इस दृष्टि से दिग्नाग और मल्लवादी समकालीन होते हैं। अतएव वे न्यायबिन्दु टीका का टिप्पण लिखे यह संभव नहीं। जब संभव ही नहीं तब उनके समय को वीरसंवत् के स्थान में विक्रम या शक मानने की आवश्यकता नहीं। . (2) तात्पर्यनिबन्धनटिप्पन हाल में ही इस टिप्पन को एक ताडपत्र की प्रति मुनि श्री पुण्यविजय जी को मिली है। प्रति के अंत में प्रशस्ति नहीं हैं और लेखक का नाम भी नहीं है। अतएव इसका लेखक कौन है यह कहना कठिन है। इसकी लिपि अति प्राचीन है। प्रतिलिपि 12 वीं शताब्दी से इधर की नहीं है। इसमें धर्मोत्तर की टीका की संक्षिप्त व्याख्या की गई है। विनीतदेव और शान्तभद्रका निरास करके धर्मोत्तर ने अपनी टीका लिखी थी यह इस टिप्पन से स्पष्ट होता है। इसे लेखक ने टिप्पन कहा है और उसका नाम तात्पर्यनिबन्धन ऐसा रखा है-"विधीयते टिप्पनकं मयापि"-१० 1; "धर्मोत्तरटीकायां तात्पर्यनिबन्धने प्रथमः परिच्छेद:"-१० 42. टिप्पन के प्रारंभ में निम्न मंगल श्लोक है संसारसागरात् पारं जगन्नेतुं तथागतम् / प्रज्ञाकर्णधरं नत्वा कृपानावि व्यवस्थितम् // इस श्लोक में 'प्रज्ञाकर्णधरं' शब्द में यदि प्रज्ञाकर और कर्णगोमिका श्लेष माना जाय तब इस टिप्पनकार का समय उन दोनों आचार्यों से बाद सिद्ध हो जाता है। यह टीकाकार दुर्वेक से तो पहले हुआ है ऐसा लगता है, क्योंकि आदिवाक्य की व्याख्या में दुर्वेक कई मतान्तरों का उल्लेख करता है जब कि इस टिप्पन में इस स्थल में अन्य मत का उल्लेख नहीं है। इस टिप्पन के कई ऐसे वाक्य हैं जिनका प्रतिबिम्ब दुक में मिलता है
SR No.004317
Book TitleDharmottar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherKashiprasad Jayswal Anushilan Samstha
Publication Year1956
Total Pages380
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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