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________________ प्रस्तावना "असति णिचा निर्वेशे व्याख्यातुरयं यत्नः स्यात्, न शास्त्रकारस्य" पृ० 5 30; "सत्यं व्याख्यातुरयं यत्नः स्यात् न शास्त्रकारस्य। अतोऽकौशलमेव शास्त्रकृतः स्यात्" पृ० २४ऐसे वाक्यों का प्रयोग दर्वेक ने भी किया है-देखो पृ० 12, 55 आदि। उत्थानवाक्य दोनों में कई स्थानों पर समान हैं। . स्वसंवेदनसिद्धि नामक ग्रन्थ के अस्तित्व की सूचना भी इस टिप्पन से प्राप्त होती है-"एतच्च स्वसंवेदनसिद्धौ व्यासतो ज्ञेयम्"पृ० 32 / विद्याभूषण के प्रन्थ में इस ग्रन्थ का कोई निर्देश नहीं है। बिन्दुटीकाटिप्पणी-इस नामसे बिब्लिओथेका बुद्धिका नं० 11 में - प्रो० चिरवासुकी ने इसका संपादन किया है। उसमें उक्त टिप्पणी को उन्होंने मल्लवाविकृत बताया है। किन्तु उनको उक्त टिप्पण की जो प्रति उपलब्ध है वह अपूर्ण ही है और इसीलिए उन्होंने उसे अपूर्ण ही छापा है। मुद्रित टिप्पण, 'यद्येवमित्यादिना' इस वाक्य में निर्दिष्ट प्रतीक के अनुसार पृ० 85 पंक्ति 3 के 'यद्येवमध्यवसायसहितमेव प्रत्यक्ष प्रमाणं" धर्मोत्तर टीका के इस वाक्य का टिप्पण होने से, वहीं तक उपलब्ध है। उसका प्रारंभिक मंगल उपलब्ध नहीं है। प्रथम परिच्छेद का भी पूरा टिप्पण उपलब्ध नहीं हुआ, अतएव परिच्छेद का अंतिम वाक्य उपलब्ध नहीं। ऐसी स्थिति में सिर्फ हस्तप्रतों की सूचिओं में मल्लवाविकृत टिप्पण का उल्लेख होने से प्रो० चिरवासुकी ने अनुमान कर लिया कि उनको प्राप्त टिप्पण मल्लवादी का है। किन्तु जैसलमेर और पाटण में उपलब्ध पूर्वोक्त मल्लवादी के टिप्पण के साथ प्रस्तुत मुद्रित टिप्पण की तुलना करने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि पूर्वोक्त मल्लवादिकृत टिप्पण और प्रस्तुत अपूर्ण मुद्रित टिप्पण दोनों एक नहीं है। अतएव प्रो० चिरवासुकी के मुद्रित टिप्पण को मल्लवादिकृत बताना भ्रमपूर्ण है। इस भ्रम को उन्होंने स्वयं न्यायबिन्दु के अंग्रेजी अनुवाद के समय दूर भी कर दिया है। मुद्रित टिप्पण में आचार्य विनीतदेव' और शान्तभद्र की न्यायबिन्दुटीकाओं का उल्लेख है और स्पष्ट बताया गया है कि धर्मोत्तर ने उन टीकाओं का निरास किया है तथा मानसप्रत्यक्ष के विषय में ज्ञानगर्भ के मत का भी निरास किया है। (4) धर्मोत्तरप्रदीप-प्रस्तुत संस्करणमें मुद्रित न्यायबिन्दुटीका की अनुटीका धर्मो- . तरप्रदीप दुर्वेक मिश्र की कृति है। यह प्रस्तुत संस्करण में पहली बार ही मुद्रित होती है। पूर्वोक्त सभी टिप्पणों से इसका विस्तार अधिक है और वस्तुतः न्यायबिन्दुटीका के लिए यह टिप्पण प्रदीप ही है। धर्मोत्तर के प्रत्येक वाक्य का समुदायार्थ और वाक्यगत पदों का पदार्थ तो प्रदीप में दिया ही गया है। किन्तु इसकी विशेषता तो उन वाक्यों या शब्दों की व्याख्या करने के पूर्व उत्थानवाक्य में पूर्वपक्ष रखने में है। धर्मोत्तर टीका के प्रायः सभी टिप्पणों की यही विशेषता रही है कि उत्थानमें पूर्वपक्ष उपस्थित करके ही व्याख्या की . न्यायबिन्दुटीकाटिप्पणी पु० 3, 13. 16. 17, 68, 21, 23 / " पृ० 13, 16, / पृ० 30 /
SR No.004317
Book TitleDharmottar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherKashiprasad Jayswal Anushilan Samstha
Publication Year1956
Total Pages380
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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