________________ प्रस्तावना 51 बाह्यनय के आश्रय से सौत्रान्तिक दृष्टि से ही है। बाकी, योगाचार मत से लक्षण प्रथित करना हो तो अभ्रान्त पद अनावश्यक है। धर्मोत्तरप्रदीप में भी 'प्रत्यक्षलक्षणगत अभ्रान्त का अर्थ अविसंवादि ज्ञान मानना चाहिए, अन्यथा योगाचार मत का असंग्रह होगा' ऐसा पूर्वपक्ष उल्लिखित किया है और धर्मोत्तर को उस पक्ष का निरास करना अभिप्रेत है ऐसा प्रतिपादन किया गया है। और लम्बी चर्चा के अन्त में यही निष्कर्ष दिया है कि प्रत्यक्ष का लक्षण सौत्रान्तिक दृष्टि से किया गया है, योगाचार मत में यह लक्षण मान्य नहीं हो सकता। न्यायबिन्दु में कुछ बातें ऐसी हो सकती हैं जो योगाचारनय को. अपेक्षा भी संगत हों, किन्तु इस का अर्थ यह नहीं है कि इस ग्रन्थ के सभी मतों की संगति योगाचार मत से हो सकेगी। उदाहरण के तौरपर प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण है--ऐसा जो सिद्धान्त न्यायबिन्दु में प्रतिपादित है वह योगाचार मत से संगत हो नहीं सकता। योगाचार के अनुसार प्रत्यक्ष केवल कल्पनापोढ ज्ञान ही हो सकता है। इससे स्पष्ट है कि दुर्वेक के मत से भी न्यायबिन्दु की रचना सौत्रान्तिक वष्टि से हुई है। इस प्रकार हम देखते हैं कि टीकाकारों में दो मत हैं। एक के अनुसार सौत्रान्तिक और योगाचार दोनों दृष्टिओं से लक्षण समन्वय हो सकता है। दूसरे मत के अनुसार ऐसा समन्वय अशक्य है। 6. न्यायबिन्दु की टीकाएँ ... न्यायबिन्दु प्राज्ञ पुरुषों के लिए लिखा गया है यह हम कह आए हैं। अतएव अतिसंक्षिप्त होने के कारण टीका की आवश्यकता रहे यह स्वाभाविक है। यही कारण है कि न्यायबिन्दु पर अनेक व्याख्याएँ लिखी गई हैं। किन्तु दुर्भाग्यसे केवल धर्मोत्तर और उनके व्याख्याताओं की ही टीकाओं की प्रतियाँ मूल संस्कृत में उपलब्ध हैं। अन्य व्याख्याओं की मूल संस्कृत प्रतियाँ उपलब्ध नहीं हुई हैं। कुछ व्याख्याओं के तिब्बती अनुवाद उपलब्ध हैं। यहाँ उन टीकाओं का परिचय दिया जाता है। (1) विनीतदेव की टीका-न्यायबिन्दु टीका का मूल संस्कृत नष्ट हो गया है किन्तु उसका तिब्बती अनुवाद उपलब्ध है और वह बिब्लिओथेका इण्डिका, कलकत्तासे ई० 1913 में प्रकाशित हुआ है। - आचार्य धर्मोत्तर ने विनीतदेव की टीका का कई स्थानों में खण्डन किया है। इससे निश्चित होता है कि विनीतदेव धर्मोत्तर से पहले हुए। इस दृष्टि से श्री राहुल जी ने 1 न्याय० टि० पृ० 19 / २.धर्मोत्तरप्रदीप पृ० 42 / 3 धर्मोत्तरप्रदीप पृ० 42-44 / 4 देखो धर्मोत्तरप्रदीप पृ० 5, 31, 34; तात्पर्य० पृ० 15, 16, 25. /