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________________ '52 प्रस्तावना वादन्याय के परिशिष्ट में विनीतदेव को धर्मोत्तर के बाद स्थान दिया है वह ठीक नहीं। अधिक से अधिक इतना कहा जा सकता है कि विनीतदेव वृद्ध थे और धर्मोत्तर युवा / यह तभी संभव हो सकता है कि विनीतदेव का खण्डन धर्मोत्तर करे। विनीतदेव ने आचार्य धर्मकीर्ति के प्रमाणवातिक और प्रमाणविनिश्चय इन दो प्रन्थों को छोड़कर शेष ग्रन्थों की व्याख्याएँ लिखी हैं और वे तिब्बती अनुवाद में उपलब्ध हैं। - डॉ० विद्याभूषण ने विनीतदेव का समय ई० 700 के आसपास रखा है। डॉ०. विद्याभूषण ने विनीतदेव के एक स्वतंत्र ग्रन्थ समयभेदोपरचनचक्र का उल्लेख किया है।' (2) शान्तभद्र की टीका-न्यायबिन्दु की टीका आचार्य शान्तभद्र ने लिखी है। श्री राहुल जी के वादन्यायगत कोष्ठक में शान्तभद्र का नाम नहीं है किन्तु दुईक की टीका को तथा न्यायबिन्दुटीकाटिप्पण (पृ० 15, 36, 53, 67, 70, 111, 11) को . देखने से निश्चय होता है कि धर्मोत्तर से भी पहले एक शान्तभद्र व्याख्याकार हुए हैं। जिनके मतों का खण्डन स्वयं धर्मोत्तर ने किया है। न्यायविनिश्चयविवरण (10 526). के मत से आचार्य अकलंक ने शान्तभद्र का खण्डन किया है। अतएव शान्तभद्र आचार्य धर्मोत्तर और अकलंक दोनों से पूर्ववर्ती हैं। अकलंक का समय ई० 7 0-780 है अतएव शांतभद्र को ई० 700 के पहले का विद्वान् माना जा सकता है। वे धर्मोत्तर के वृद्धसमकालीन भी हो सकते हैं। विनीतदेव और शांतभद्र का एक साथ उल्लेख दुईक करते हैं। इससे पता चलता है कि दोनों के मत समान थे। (3) धर्मोत्तर की टीका-न्यायबिन्दु की धर्मोत्तरकृत टीका सद्भाग्य से मूल संस्कृत में उपलब्ध है और वही प्रस्तुत संस्करण में मुद्रित है। यह व्याख्या भी अति संक्षिप्त 1477 श्लोकप्रमाण है। फिर भी धर्मकीति के मन्तव्य को अतिस्पष्ट रूप से प्रकट करती है इसमें संदेह नहीं है। यही व्याख्या सर्वोत्तम भी है। इस बात का प्रमाण यही है कि उसी के ऊपर कई अनुटीकाएँ लिखी गई हैं। इसका तिबन्ती अनुवाद भी हुआ है। भारतीय पंडित ज्ञानगर्भ और तिब्बती पंडित धर्मालोक ने मिलकर इसका अनुवाद किया है जो तंजूर (Mdo. cxi) में उपलब्ध है। न्यायबिन्दु की तात्विक व्याख्याओं का पुरस्कर्ता धर्मोत्तर है। उसके पहले जो टीकाएँ बनीं वे शब्दार्थप्रधान थीं। धर्मोत्तर कल्याणरक्षित और धर्माकरदत्त के शिष्य थे", अतएव धर्माकरदत्त जिनका दूसरा नाम अर्चट है, उनके समकालीन है। धर्माकारदत्त का समय ई० 725 के पूर्व पं० श्री सुखलालजी ने माना है। 1. Vidyabhushana : History of Indian Logic. p. 321. 2 धर्मोत्तरप्रदीप पृ० 5, 31, 32, 61 / 3 धर्मोत्तरप्रदीप-पृ० 5, 31 / 8 S. Vidyabhushan : History of Indian Logic, p. 329. 5 हेतुबिन्दुटीका-प्रस्तावना पृ० 11 /
SR No.004317
Book TitleDharmottar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherKashiprasad Jayswal Anushilan Samstha
Publication Year1956
Total Pages380
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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