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________________ प्रस्तावना सकती। सौत्रान्तिक और योगाचार ये दोनों अविसंवाद को ही अभ्रान्त रूप मान कर प्रमाण मानते हैं। यहां कोई यदि यह कहे कि यदि अभ्रान्त का अर्थ अविसंवादि है और अविसंवादि तो अनुमान भी होता है तो प्रत्यक्ष और अनुमान में क्या भेद रहा ? तो उसका उत्तर यह है कि अनुमान अविसंवादि होते हुए भी कल्पनापोढ नहीं होता। अतएव कल्पनापोढ पद से अनुमान की व्यावृत्ति होती है / तात्पर्य निबन्धन नामक टिप्पनकार के मत से धर्मोत्तर ने उक्त व्याख्या का निरास . किया है। धर्मोत्तर ने 'अभ्रान्त अर्थात् अर्थक्रिया में समर्थ वस्तुरूप में जो अविपर्यस्त हो' ऐसा कह कर के पूर्वोक्त व्याख्या का निरास किया ऐसा तात्पर्य टिप्पनकार ने बताया है। *यहां टिप्पनकार ने पूर्वपक्ष उपस्थित किया है कि यदि अभ्रान्त पद की यही व्याख्या ठीक है तब योगाचार मत का तो संग्रह होता नहीं, क्योंकि योगाचार तो बाह्यार्थ के विषय में किसी ज्ञान को अविपर्यस्त मानता ही नहीं। इसका उत्तर यह दिया गया है कि वस्तुतः अभ्रान्तत्व यह लक्षण है ही नहीं। यदि अभ्रान्तत्व लक्षण नहीं है तब द्विचन्द्रादि भ्रान्त ज्ञानों की प्रत्यक्षता कैसे निराकृत होगी? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि प्रमाणसामान्य लक्षण गत अविसंवादि विशेषण से द्विचन्द्रादि भ्रान्त ज्ञानों का निराकरण हो जायगा, क्योंकि वे विसंवादि है अर्थात् संवादि नहीं हैं। इस प्रकार योगाचार मत में लक्षणसमन्वय हो जाता है। सौत्रान्तिक पक्ष में अम्रान्त पद का प्रयोजन क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि कुछ आचार्यदेशियों का कहना है कि आचार्य ने द्विचन्द्रादि भ्रान्ति का निराकरण कल्पनापोढ पद से ही किया है क्योंकि ये भ्रान्तियां मानसी हैं, इन्द्रियज नहीं। अतएव आचार्य ने प्रमाणवार्तिक में प्रत्यक्षलक्षण में अभ्रान्त पद का प्रयोग नहीं किया। उन लोगों की इस विप्रतिपत्तिका निराकरण करने के लिए ही आचार्य ने न्यायबिन्दु में अभ्रान्त पद दिया है और टीकाकार ने भी आचार्य के उसी अभिप्राय के पालन के लिए ही कहा है कि अभ्रान्त पद द्विचन्द्रादि भ्रान्ति का ही निवारण करेगा यदि वह इन्द्रियज होगी। __ इस प्रकार हम देखते हैं कि पूर्वोक्त दोनों व्याख्याकारों ने अपनी अपनी दृष्टि से यह बताने की चेष्टा की है कि न्यायबिन्दु ग्रन्थ की रचना सौत्रान्तिक और योगाचार दोनों मतों के संग्रह की दृष्टि से हुई है। मुद्रित न्याबिन्दुटीका-टिप्पणी में किसी का पूर्वपक्ष उपस्थित किया गया है कि प्रत्यक्षलक्षण में अभ्रान्तपद देने से योगाचार मत का संग्रह नहीं होगा। इससे प्रतीत होता है कि पूर्वपक्षका अभिप्राय यह है कि न्यायबिन्दु सौत्रान्तिक-योगाचार-उभय मत की दृष्टि से संगत होना चाहिए। किन्तु टिप्पणीकारने अपना स्पष्ट अभिप्राय दे दिया है कि यह लक्षण 'तात्पर्य० 10 19 / पाठ के उद्धरण के लिए देखो प्रस्तुत ग्रन्थ पू० 263 / 2 तात्पर्य० पृ० 20 / पाठ के उद्धरण के लिए देखो प्रस्तुत ग्रन्थ पृ० 264 / / 3 संपादक ने इसे मल्लवादिकृत माना है किन्तु यह अन्यकर्तृक है। आगे मैंने इस विषयमें विशेष विचार उपस्थित किया है।
SR No.004317
Book TitleDharmottar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherKashiprasad Jayswal Anushilan Samstha
Publication Year1956
Total Pages380
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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