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________________ प्रस्तावना है। इस दृष्टि से यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि न्यायबिन्दु की रचना सौत्रान्तिक दृष्टि से हुई है। प्रमाण-प्रमेय की अन्यत्र प्रसिद्ध व्यवस्था को निरस्त करके सौत्रान्तिक दृष्टि से व्यावहारिक व्यवस्था स्थिर करने के बाद यह सरल हो जाता है कि यह व्यवस्था परमार्थ दृष्टि से किस प्रकार असंगत है। प्रमाणवातिक में आचार्य धर्मकीर्ति ने यही क्रम अपनाया है और सोत्रान्तिक दृष्टि से प्रमाण-प्रमेय की व्यवस्था के अनन्तर ही उसी व्यवस्था में कैसी अव्यवस्था है यह दिखा कर बाह्यार्थ का निरास करके विज्ञप्तिमात्रता की सिद्धि की है। अतएव हम कह सकते हैं कि व्यावहारिक पक्षको उपस्थित करने के लिए न्यायबिन्दु में आचार्य ने सौत्रान्तिक दृष्टि का अवलंबन किया है। न्यायबिन्दुटीका के तात्पर्यनिबन्धन नामक टिप्पनकारके मतानुसार आचार्य धर्मोत्तर ने सम्यग्ज्ञान की व्याख्या करते हुए जो अविसंवादि ज्ञान को प्रमाण कहा है उसका तात्पर्य यह है-सम्यग्ज्ञान अर्थात् अविसंवादि ज्ञान; सम्यग्ज्ञान अर्थात् अविपर्यस्त ज्ञान नहीं। अविपर्यस्त ज्ञान को ही यदि सम्यग्ज्ञान माना जाय तब योगाचार मत का संग्रह इस व्याख्या में नहीं होगा। योगाचार तो ताथागत ज्ञान को छोड़ कर किसी भी सालम्बन ज्ञान को अभ्रान्त-अविपर्यस्त नहीं मानते / ऐसी स्थिति में साधारण जन का कोई सालम्बन ज्ञान अभ्रान्त नहीं। अतएव प्रमाण भी नहीं। साधारण जन का ज्ञान भले ही भ्रान्त हो किन्तु व्यवहार में अविसंवादि तो हो सकता है और इस दृष्टि से प्रमाण भी हो सकता है। अतएव सम्यग्ज्ञान का अर्थ अविसंवादि ज्ञान किया जाय तब सौत्रान्तिक और योगाचार के भी अनुकूल व्याख्या हो जायगी / आगे चल कर प्रत्यक्ष. लक्षण की व्याख्या में भी सौत्रान्तिक और योगाचार दोनों पक्षों की दृष्टि से प्रत्यक्ष लक्षण किस प्रकार संगत होता है इस विषय में किसी अन्य व्याख्या का उल्लेख करके स्वाभिमत व्याख्या की है। अन्य व्याख्याकार और तात्पर्यनिबन्धनकार ये दोनों प्रत्यक्ष की व्याख्या में सौत्रान्तिक और योगाचार मत की संगति देखते हैं। दोनों के मत से न्यायबिन्दु दोनों दृष्टिओं के संग्रह को लक्ष्य में रख कर प्रथित हुआ है, किन्तु दोनों व्याख्याकारों ने अपनी उपपत्ति भिन्न रूप से की है। तात्पर्यनिबन्धन में उल्लिखित अन्य व्याख्या का अभिप्राय इस प्रकार है-प्रत्यक्ष लक्षण में 'अभ्रान्त' पद से तैमिरिक आदि भ्रान्त ज्ञानों की व्यावत्ति अभीष्ट है और 'कल्पनापोढ' पद से अनुमान की व्यावृत्ति / अभ्रान्तपद से आलम्बन विषयक भ्रान्ति जो योगाचार संमत है उसकी व्यावृत्ति नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से योगाचार मत अमान्य हो जायगा। यह प्रकरण तो सौत्रान्तिक और योगाचार दोनों के मतों का अनुसरण करके प्रथित है, अतएव योगाचार के मत को अमान्य करके प्रत्यक्ष की व्याख्या नहीं की जा * - 'प्र० वा० 2. 320 से / देखो तात्पर्य० पृ० 8 / पाठके उद्धरणके लिए देखो प्रस्तुत ग्रन्थ पृ० 261 /
SR No.004317
Book TitleDharmottar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherKashiprasad Jayswal Anushilan Samstha
Publication Year1956
Total Pages380
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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