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________________ 48 प्रस्तावना 5. न्याबिन्दु प्रमाणशास्त्र के जब अनेक ग्रन्थ बन गए तब परिनिष्ठित सिद्धान्तों का ही संक्षेप में प्रतिपादन करने वाले ग्रन्थों की आवश्यकता प्रतीत हो यह स्वाभाविक है। आचार्य वर्मकीति ने न्यायबिन्दु लिखकर उसी आवश्यकत की पूर्ति की है। दुवेक ने स्पष्ट रूप से इस बात को कहा है कि न्यायबिन्दु संक्षेपरुचि प्राज्ञ जिज्ञासु के लिए प्रथित है अत एव प्रमाणवातिक जैसे ग्रन्थ के विद्यमान होते हुए भी न्यायबिन्दु की रचना व्यर्थ नहीं है।' न्यायबिन्दु ग्रन्थ किस मत की दृष्टि से लिखा गया है यह एक चर्चा का विषय है। दिग्नाग और धर्मकीर्ति ये दोनों विज्ञानवाद के पुरस्कर्ता योगाचार मत के माने हुए विद्वान् हैं इसमें तो संदेह नहीं है। किन्तु न्यायबिन्दु के पढ़ने से यह स्पष्ट नहीं होता कि आचार्य धर्मकीति ने इसकी रचना योगाचार की पुष्टि के लिए की है। बाह्य अर्थ का अस्तित्व सर्वथा नहीं है ऐसा मत योगाचार का है। किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण के विषय, स्वलक्षण का स्वरूप आदि बातें न्यायबिन्दु में ऐसी हैं जो यह सिद्ध करने के लिए कि यह ग्रन्थ योगाचार मत का नहीं है, पर्याप्त है। किन्तु जब स्वयं आचार्य धर्मकीर्ति योगाचार मत का प्रबल समर्थन / ' प्रमाणवातिक आदि ग्रन्थों में करते हैं तब यह कैसे संभव हो कि न्यायबिन्दु में वे योगाचार मत का परित्याग करके सौत्रान्तिक मत के समर्थक बन जायें ? अतएव न्यायबिन्दु के कुछ वाक्यों का तात्पर्य सौत्रान्तिक और योगाचार दोनों मतों का संग्रह करने में है ऐसा कुछ टीकाकारों ने अपना मत प्रदर्शित किया है। किन्तु अन्य टीकाकारों ने इसमें आपत्ति की है और यह मत प्रदर्शिन किया है कि न्यायबिन्दु ग्रन्थ दोनों मतों की दृष्टि से नहीं किन्तु सौत्रान्तिक दृष्टि से लिखा गया है। योगाचार की दृष्टि में बाह्य पदार्थ का अस्तित्व संवृतिसत्त्य की दृष्टि से है, पारमार्थिकदृष्टि से नहीं। अतएव प्रमाण-प्रमेय व्यवहार सांव्यवहारिक है और प्रमाण शास्त्रों का निरूपण भी सांव्यवहारिक दृष्टि से ही हो सकता है। परमार्थ तो स्वसंवेदन का विषय है, अवाच्य है। उससे व्यवहार का प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। अतएव प्रमाण-प्रमेय की व्यवस्था व्यावहारिक धरातल से ही की जा सकती है। व्यावहारिक धरातल से निरूपण करना हो तो अन्य मतों की अपेक्षा सौत्रान्तिक मत, जो कि बाह्य पदार्थों का अस्तित्व मानकर प्रमाण-प्रमेय व्यवस्था करता है, भूमिका बन सकता है। अर्थात् व्यावहारिक दृष्टि से बाह्य पदार्थ का अस्तित्व स्वीकार करके जो व्यवस्था करना हो वह सौत्रान्तिक मत के अनुसार ही की जा सकती है, अन्य अबौद्ध दर्शनों का आश्रय लेकर नहीं। अतएव हम कह सकते हैं कि प्रमाणवातिक आदि ग्रन्थ योगाचार मत के पारमार्थिक पक्ष को उपस्थित करते हैं और न्यायबिन्दु उसके व्यावहारिक पक्ष को। अतएव व्यावहारिक पक्ष के निरूपण में सौत्रान्तिक दृष्टि का ही प्राधान्य रह सकता "नन् वार्तिकादिनैव सम्यग्ज्ञानस्य व्युत्पादनात् कथमस्य न वैयर्थ्यमिति चेत्, संक्षिप्तरुचीन प्राज्ञान अधिकृत्येदं प्रकरणं प्रणीतमित्यदोषः।" धर्मोत्तप्रदीप पृ० 35, 37, 57, 108 /
SR No.004317
Book TitleDharmottar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherKashiprasad Jayswal Anushilan Samstha
Publication Year1956
Total Pages380
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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