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________________ प्रस्तावना 47 धर्मकीति जो अपने साक्षात् शिष्य देवेन्द्रबुद्धि से अपेक्षा रखते थे उनकी वह अपेक्षा धर्मोत्तर से पूरी हुई ऐसा निःसंकोच कहा जा सकता है। ध्वन्यालोक के कर्ता आनन्दवर्धन ने भी धर्मोत्तरकृत प्रमाणविनिश्चय की टीका पर टीका लिखी है, किन्तु वह उपलब्ध नहीं है।' ज्ञानश्री ने भी धर्मोत्तरकृत टीका पर टीका लिखी है। इसी परंपरा में ब्राह्मणपंडित , शंकरानन्द ने एक विस्तृत व्याख्या प्रमाणवार्तिक पर लिखना प्रारंभ किया, किन्तु वह अधूरी ही रही। तीसरी श्रेणी में धार्मिक दृष्टि को महत्त्व देने वाले धर्मकीतिके टीकाकार हैं। उनमें प्रज्ञाकरगप्त प्रधान हैं। उन्होंने स्वार्थानुमान परिच्छेद को छोड़कर शेष तीन परिच्छेद की व्याख्या प्रमाणवार्तिकालंकार नाम से . लिखी। वह प्रमाणवातिकभाष्य भी कहा जाता है। इस श्रेणी के टीकाकारों के मत में प्रमाणवार्तिक के प्रामाण्यपरिच्छेद का अधिक महत्त्व है, क्योंकि उसमें भगवान् बुद्ध के सर्वज्ञत्व तथा उनके धर्मकाय की सिद्धि की गई है। उनका कहना है कि प्रमाणवार्तिक का महत्त्व प्रमाणसमुच्चय की व्याख्या के रूप में नहीं किन्तु समग्र महायान के मूलभूत तत्त्व बुद्ध और उनके विशिष्ट गणों की स्थापना में है। बुद्ध के धर्मकाय, स्वभावकाय और ज्ञानकाय का निरूपण करना ही प्रमाणवार्तिक का मुख्य उद्देश है और उसी के प्रसंगमें शेष प्रमाणशास्त्र की उपयोगिता है। प्रज्ञाकरका अनुसरण करने वाले भी कई आचार्य हुए, किन्तु उनमें भी आपस में मतभेद है। जिन नामक आचार्य ने प्रज्ञाकरके विचारों की पुष्टि की है और प्रज्ञाकरके अलंकार की व्याख्या लिखी है। रविगुप्त प्रज्ञाकरका साक्षात् शिष्य था और उसने भी अलंकार की टीका लिखी। किन्तु जिननामक आचार्य ने अपनी टीका में रविगुप्त के कई मन्तव्यों का खण्डन किया है। ज्ञानश्री के शिष्य यमारि ने भी अलंकार की टीका की और उन्होंने जिनके मन्तव्यों का निरास किया है। कर्णगोमी ने स्वार्थानुमान परिच्छेद की ही व्याख्या की है। अतएव उन्हें धर्मोत्तर की परंपरा में रखना चाहिए। - मनोरथनंदी की जो टीका उपलब्ध है वह संपूर्ण चारों परिच्छेदों पर है, किन्तु परिच्छेदों का क्रम बदला हुआ है और व्याख्या मात्र शब्दार्थपरक है / धर्मकीर्ति के प्रन्थों की टीकापरंपरा केवल संस्कृत में ही नहीं रही किन्तु जब बौद्ध धर्म का प्रचार तिब्बत में हुआ तो लामाओं ने तिब्बती भाषा में भी स्वतंत्र टीकाएँ प्रमाणवातिक आदि ग्रन्थों पर लिखी हैं और उनका अध्ययन-अध्यापन आज भी बौद्ध विहारों में चालू है। इस प्रकार हम देखते हैं कि दिग्नाग के द्वारा बौद्ध प्रमाणशास्त्र का जो बीजवपन हुआ वह धर्मकीर्ति और उनके शिष्यों ने वटवृक्ष के रूप में परिणत कर दिया। ध्वन्यालोकटीका पृ० 233, उसका नाम है-धर्मोत्तमा। Buddhist Logic Vol. I p. 41. 2 जिनके स्थान में श्री राहलजी जयानन्त नाम देते है-देखो वादन्याय परिशिष्ट पृ० 8 /
SR No.004317
Book TitleDharmottar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherKashiprasad Jayswal Anushilan Samstha
Publication Year1956
Total Pages380
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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