________________ 38 ' प्रस्तावना की है। उन सुत्तों के अध्ययन से एक बातका तो निश्चय हो जाता है कि स्वयं भगवान बुद्ध अन्यतीथिकों के मन्तव्यों का निरास जब करते हैं तब आगमप्रामाण्य या किसी के वचन के प्रामाण्य को नहीं मानते किन्तु युक्ति का ही मुख्य रूप से अवलंबन लेते हैं। उनकी युक्तियों का मूलाधार व्याप्ति नहीं किन्तु दृष्टान्त होता है। दृष्टान्त के बलसे वे अपने मन्तव्य को स्थिर करते हैं और दृष्टान्त के ही बल से प्रतिवादी के मन्तव्य का निरास करते हैं। उनकी युक्ति की विशेषता दृष्टान्त में ही है। वे ऐसा दृष्टान्त उपस्थित करते हैं जिससे प्रतिवादी उनकी बात को बिना माने रह नहीं सकता। वस्तुतः उस समय के बादकी यही विशेषता है। उपनिषदों में भी हम देखते है कि दृष्टान्त के बलसे अद्वैत ब्रह्म की सिद्धि की गई है। अतएव हम कह सकते हैं कि तत्कालीन वादप्रक्रिया में दृष्टान्त का अत्यधिक महत्त्व था। यही कारण है कि प्राचीन काल के ग्रन्थोंमें जात्युत्तर (Sophistic Answers) की विशेष विचारणा है। जात्युत्तर में साधर्म्य और वैधर्म्य दृष्टान्त को लेकर ही परमत का खण्डन करने की प्रक्रिया संनिविष्ट है। इसीसे हम देखते हैं कि न्यायसूत्र और प्राचीन बौद्ध न्यायग्रन्थों में अनुमान प्रमाण या व्याप्ति की विशेष विचारणा न होकर जात्युत्तर की प्रक्रिया को विशेष महत्त्व दिया गया है। प्राचीन बौद्ध तर्क ग्रंथ और न्यायसूत्र में वाद-विवाद से संबद्ध विषयों का ही अधिक समावेश हुआ है, शुद्ध प्रमाणविचारणा का स्थान गौण है। अतएव दृष्टान्तमलक जात्युत्तरों का प्राधान्य प्राचीनकालीन न्यायशास्त्र की विशेषता है। न्यायसत्र. चरकसंहिता, और बौद्धो के तर्कशास्त्र, उपायहृदय, आदि ग्रंथों की तुलना करने से यह स्पष्ट होता है कि प्राचीनकालीन न्यायप्रणाली में ऐसा कोई मौलिक सैद्धान्तिक भेद नहीं था जिसके कारण वैदिक न्यायपद्धति से बौद्ध न्यायपद्धति का भेद किया जा सके। प्रतिपाद्य विषय का भेद अवश्य था किन्तु प्रतिपाद्य विषय को सिद्ध करने का साधन जो न्यायप्रणाली या आन्वीक्षिकी विद्या थी वह एक ही थी। वैदिक दार्शनिक आत्माकी सिद्धि करें या आत्मा की नित्यता की या एकता की सिद्धि करें और बौद्ध दार्शनिक निरात्मवाद और क्षणिकवाद की स्थापना करें; यह प्रतिपाद्य विषय दोनों के भिन्न हैं किन्तु दोनों अपनी सिद्धि के लिए जिस साधनप्रक्रिया का प्रयोग करते थे वह प्रक्रिया प्रायः सर्वसम्मत होती थी। यही कारण है कि प्राचीनकालीन आन्वीक्षिकी विद्या में या हेतुविद्या में बौद्ध हेतुविद्या जैसी कोई स्वतंत्र विद्या नहीं थी। किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि बौद्धों ने प्राचीन हेतुविद्या में कुछ भी नया नहीं किया / जातिको प्रक्रिया में न्यायसूत्र, चरक और बौद्धों के उपायहृदय और तर्कशास्त्र में सर्वथा ऐकमत्य है यह कहने का तात्पर्य नहीं। उन सभी में थोड़ा मतभेद होते हुए भी वह मतभेद ऐसा नहीं कि उसके कारण बौद्धों की हेतुविद्या को या चरक की हेतुविद्या को न्यायसूत्रगत हेतुविद्या से स्वतन्त्र स्थान मिल सके। तुलना से इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि प्राचीनकालीन हेतुविद्या की प्रक्रिया ' दीघनिकाय-पोट्ठपादसुत्त 1. 9; तेविज्जसुत्त 1. 13; महानिदानसुत्त 2. 15 / अंगुत्तरनिकाय-वेरंजकसुत्त 8. 1. 2. 1; सीहसुत्त 8. 1. 2. 2 / मज्झिमनिकाय-अस्सलायनसुत्त 2. 5. 3; आदि। 2 तुलना के कोष्ठकों के लिए देखो-Tucci : Pre-Dignaga Buddhist Tests - (G. 0. S.) Introduction p. 16.