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________________ प्रस्तावना 1. बौद्ध न्याय की भूमिका - पालि त्रिपिटक के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि भगवान् बुद्ध तत्कालीन धार्मिक आचारों और दार्शनिक विचारों से असंतुष्ट थे। पालि सुत्तपिटक में हम देखते हैं कि भगवान बद्ध तत्कालीन अनेक त्यागी-तपस्वी श्रमणों के पास साधना और ज्ञानोपार्जन के लिए जाते हैं किन्तु कहीं भी उनके मन की संतुष्टि नहीं होती। अन्त में वे अपना निर्वाणमार्ग स्वयं ढंढते हैं और चार आर्यसत्य, अनात्मवाद तथा मध्यमप्रतिपदा की प्रतीति होने पर धर्मचक्रप्रवर्तन करते हैं। उनके उपदेश की विशेषता में से ही जिस धर्म और दर्शन का निर्माण हुआ वह आज संसार में बौद्ध धर्म और दर्शन के नाम से विख्यात है। बौद्धधर्म का दार्शनिक सिद्धान्त अनात्मवाद या नैरात्म्यवाद है फिर भी वह आध्यात्मिक ( Spiritual) धर्म है, क्योंकि अनात्मवाद की मान्यता होते हुए भी उसमें कर्मवाद, परलोकवाद, बंध तथा मोक्ष की व्यवस्था है। बौद्धधर्म आध्यात्मिक धर्म होने से वस्तुतः उसमें एकान्त समाधि से तत्त्वका साक्षात्कार माना गया है, तर्क के बल पर नहीं। अतएव उसे विवाद से कोई प्रयोजन नहीं होना चाहिए। किन्तु जिस परिस्थिति में वह उत्पन्न हुआ और जिस रूप से उसका प्रचार हुआ यह दृष्टिगत करें तो यही कहना पड़ेगा कि तत्कालीन परि:: स्थिति में ताकिक वाद-प्रतिवाद के बिना नए धर्म का प्रचार संभव नहीं था। एक ओर चार्वाक दर्शन की मान्यता रखने वाले लोग थे जो भौतिक सुख की प्राप्ति को ही परम पुरुषार्थ मानते थे और किसी प्रकार की आध्यात्मिक साधना में विश्वास नहीं रखते थे; तो दूसरी ओर उनका तीव्र विरोध करने वाले श्रमणों का भी वर्ग था जो कायक्लेश को ही आध्यात्मिक साधना का अंग मानते थे। एक ओर वैदिक ब्राह्मणों का वर्ग था जो काम्यकर्मों का प्रतिपादन करता था तो दूसरी ओर ऐसे भी लोग थे जो अद्वैत ब्रह्मतत्त्व के ध्यान का प्रचार कर रहे थे। ऐसी परिस्थति में इन सबका विरोध करने वाले भगवान् बुद्ध और उनकी शिष्य परम्परा के लिए वाद-विवाद करना अनिवार्य था। विरोधियों के मन्तव्यों का तर्कसंगत यक्तियों के बल से निरास और अपने मन्तव्यों की स्थापना करना--यह भी एक धर्मप्रचार का अच्छा साधन था। उस साधन को भगवान बुद्ध और उनकी शिष्यपरंपरा ने अपनाया और इसी में बौद्ध न्याय या प्रमाणशास्त्र की भूमिका है। पालि त्रिपिटक में ऐसे कई सुत्त हैं जिनमें हम देखते है कि भगवान् बुद्ध ने अपने विरोधियों के मन्तव्यों का विविध युक्तियों के बल से निरास करके अपने मन्तव्यों की स्थापना 1 मज्झिमनिकाय-अरियपरियेसनसुत्त, 1.26, बोधिराजकुमारसुत्त, 2.45 आदि /
SR No.004317
Book TitleDharmottar Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherKashiprasad Jayswal Anushilan Samstha
Publication Year1956
Total Pages380
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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