________________ 347 मूलस्थपद्यानामनुक्रमणिका धर्म्य शील णेच्छत्राः कर्मवृत्तं...॥३।२।१५॥ मोपान्तरुष्मादयवादि मो वः...||३।३।८।। धूमादितो वृञ् तनट्टिच्चिरं ... // 3 // 15 // यत्तदश्च द्व्योर्वादि जात्या बहु....।।२।३।३।। धेकादेर्वा षोडैकध्यं द्वित्रिभ्यां....॥२।३।१०॥ यथार्हशक्ते विधिप्रार्थने सम्प्रश्ने...॥४।२।९।। न ओदिदातेर्घिति कुश्चजोये...।।४।१।३।। यूयं वयं जसा तुभ्यं....।।१।२।१५॥ नन्दिग्रहघ्राज्वलतस्थको ग....॥४।१।१२॥ र्येकाज्यसोऽर्जागुरुवीण्णवा श्ये...।।३।४।१२।। न न्र्बो वल्यर्वा ये स्सन्युधिज्ञ...॥३।४।५।। योद्धनिमित्ताद् विशरे प्रगाथे...॥२।४।८।। न य्वः पदाढैज्स्वरस्वागतादेः...||२।२।६॥ रजेो दंशिस्वञ्जिसञ्जेश्च...||४|१०२३।। न शाटुतोऽन्ते च षि तुल्लि....॥१।१।१३।। राजघताडघपाणिघशिल्पी...॥४।१।८॥ नस्नासिका नाम्नि खरात् खुराद्...||१।४।१२।। रात्रिन्दिवाद्याडहनं द्विगोर्वा....||१।४।५।। न हलो वम ईडिनि वाष्टन...॥१।२।२१।। राष्ट्रतो ब्रह्मणो वा महत्को...||१।४।६।। नाप्पदे वा सृतो र्डस्तु...॥२।१।१॥ लङ्गिकपेरुपतापविकारे...॥३।४।२०।। नामजात्योः सरोऽनोऽयसो...॥१।४।७।। लट् स्मे च नन्वोरपि चोत्तरे .. // 4 / 2 / 5 / / नुटि नो नृ न वा, यकृतो...॥१।२।२०।। लभष्टेण्णमोर्वा य्युपाङ: स्तवान्ये....।।३।४।१४॥ नेषद्गुणैस्तत्पुरुषः सदायाः // 1 / 4 / 2 / / लिङ् यद्यद्यदस्तौ कथमक्षिपा वा...।।४।२।७।। परावराभ्यामधरोत्तमाद् यो... // 3 / 1 / 2 / / लुगिण ते पदो दीपपूायि ताय... // 4 / 2 / 16 / / पर्यभ्यनोः स्यन्दि ततो....||१।२।१०॥ लोडामेऽनिड आन्युमी ड्हिसि...॥४।२।१६।। पैलांदितो ण्यार्थञितोऽणिजौ च....|२।२।४|| वर्जेस्यो नो लिट्यदृशृपां वय्....॥३।४।१०।। प्रज्ञेभ्योऽणिति हादितो ण्य...॥२॥३१॥ वलः शिखायाः नडशादतो डिद् ... / / 2 / 4 / 6 / / प्राद्यनोऽन्तेऽपि वेता हनो...॥१।२।५।। वलोच्छरोऽवद्युद्रुतो म गोमिन् ...||3 / 3 / 11 / / फाण्टाहतेस्तन्मिमतान्नडादे..॥२।३।१७।। वल्लोहितादेः ठठणेकशालायाः...||२।३।१२।। बह्वल्पार्थात् संख्यैकार्थाद्...।।२।३।७।। वा र्टा डि वंश्यर्द्धिनदेस्ति..॥१।२।२२।। बाहीकबाह्येऽग्निकलेस्तु ढक्त्वा...।।२।४।२।। वा शरि लुक्खरि कौष्क ... / / 1 / 1 / 16 / / बोधाहारध्वनिगतिसमा...॥१।३।३।। वास्तव्यकर्ता सीदनीयतव्यौ....॥४।१।१८।। भूत इवे वससच्छुव लिङ्लङ...।।४।२।४।। वाहीकेऽविप्रराजन्याज्ञ्यट् ... // 2 / 3 / 13 / / भूर्तच्च मासाद् यखौ वयार्यो...||३।१।५।। विकाररक्ते भ्रिति मान्यटाच्ये...॥२।१।३।। भ्रम्भ्राशलष्कन्त्रुटिभ्लाश्त्रसिक्लं...॥४।१।२२॥ विद्वांश्च लण्माङि क्षिपात् क्वसुलिट...॥४।१।२१।। भ्रातुर्व्यछौ यः श्वसुरात् कुलाऽड्ढ...॥२।३।१५॥ विमुक्ततो गोषदतस्त्विवेतद्...॥३।३।१२।। भ्वादेरिवेतः सहने तिजोऽनिट...॥३।४।२।। विष्वचो वाऽद्रिकुः सं समि...॥२।१।६।। मयोऽचि लिड् वः शरि...॥१।१।१॥ व्यवहपण इकानामज्वरेः...॥१।३।२।। मुः ख्यात्मकुक्षेरि फलेग्रहोऽण...॥४।१।१॥ व्रश्चभ्रस्जोऽलिडयङि वशो..||३।४।१९।