________________ 228 पञ्चग्रन्थी व्याकरणम् धिवितृपौ स्मृ पृ पालनप्रीत्योः दन्भु ऋधुः शक्तृराप्लु तु राध / साधहिखिज्ञितृषा: टुदु तापे तिज्रिरिगावतङानि अशूङित् / आक्रमणे ष्टिघ पञ्चपदीवृत् स्वादि // 82 // तुद व्यथायां दिश सर्जने कृषः भ्रस्जस्तु पाकेऽथणुद क्षिपौ मुच्छ्र / लाभे विद्लु शाषि च लिप् लुप्लुस्तिड: कृती खिदश्चावयवे पिशर् तथा // 83 // लिश् विच्छ ऋष् क्षिश्च द्रुण रिष् जुड् ऋच्छ ध्रुवेल पिशो गमने / रिफ मिछ् दृप तुन्फतृहौ शरि गित् ष्टुहुवः सृजप्रच्छमृशेषुविशः // 8 // तृफतृन्फशुभोंहतृतौ गुफगुम्फभी ग्रथने तुफतुन्पत्रुटी / तुपतिम्प गतौ दृपहन्फमिछा रुजिशुम्भशुभौर् हिल हावकृतौ // 85 // व्रश्चूखुरण संवरणे त्वचोग्री: उछि विवासे धि तु धारणे षुञ् / उब्जार्जवे घुर्णघुणौ षुसुरेशे वृहूद्यमे स्याद् ऋच तु स्तुतौ च // 86 // उज्झौत्सर्गे किलमिषु श्वैत्ये स्याद् धृङ् कृ विक्षेपे मिल टुमस्जो शुद्धौ / ' संस्पर्शे स्पृशछुप जुषी चेष्टे उभउन्भे शिलषिलउञ्छि उञ्छे // 87 // तुणभुजौ तु कौटिल्ये तु मुण ज्ञाने पुणः शुभे / / तिल स्नेहे बिलो भेदे चिल पृणश्विधौ विधौ // 88 // कुणकुरघुरघः पुरोऽग्रगे क्षुर लिख तु लुभो विमोहने / मृडमृड: सुखने णिलो गहने षद्ल शद्ल चल चर्चझर्झजर्जाः // 89 // तुणकुट चुण चुटत्रुटखुरछुर छिदि मुट कुट णुः स्फलस्फरौ / द्रुडजुडत् विधूनने तु धू तुट लुट पुट श्लेषणे गुजघ् // 10 // स्फुटव्यचो गुड रक्षणे डिपड् विड्मोचने गुः क्रुझुडि मज्जने / कलि कृपायां तुट चातङानिनो गुरुद्यमे क्रूकुकुघोऽपि वृत्तङः // 91 // सोऽयं कुटादिः // ओलस्जी ओलजी व्रीडे जुषी प्रीत्यौ दृङादरे / मृङभावे विजी भीतौ पृङ् व्यायामे तङो गणः // 92 / [तुदादि / ] रुधिभिदिछिदिविचीर् क्षुदियुजिर्वेति / / छिदिस्तृदिरुद्गितावुदिद् विभाषिताः शिष्लुः पिष्टुः // 93 // पृची...जी जो भञ्जो तुह हिंसिओविजी तन्तुसङ्कोचने तञ्चू / उन्दी क्लेदेऽप्यतः खिदः विचारे विदबिद जिइन्धीट् तङाना वृत् तु // 94 // षट्पदी // [रुधादि // ] तनु विस्तारे दाने षणु अदने [तृणु] क्षणु क्षिणु ऋणु गृ स्यात् / घृणूदित् डुकृञ् तु तद् वा मनुर्वनुर्याचने तङ् वृत् // 95 // तनादि //