________________ 36 कातन्त्ररूपमाला आमन्त्रणे सिः सम्बुद्धिः // 133 // आमंत्रणार्थे विहित: सि: ह्रस्वनदीश्रद्धाभ्यः सिर्लोपम्॥१३४ // ह्रस्वनदीश्रद्धाभ्य: पर: संबुद्धिसंज्ञक: सिर्लोपमापद्यते / कैश्चिदामन्त्रणाभिव्यक्तये अहो हे भो शब्दा: प्राक्प्रयोज्यन्ते / हे पुरुष / द्विवचनबहुवचनयो: पूर्ववत् / हे पुरुषौ / हे पुरुषाः / तथैव कर्मविवक्षायाम् // शेषाः कर्मकरणसंप्रदानापादानस्वाम्यायधिकरणेषु // 135 / / शेषा द्वितीयाद्या: षड् विभक्तय: कर्मादिषु षट्स् कारकेषु यथासंख्यं भवन्ति / इति कर्मणि द्वितीया। पुरुष अम् इति स्थिते। . अकारे लोपम् // 136 // लिङ्गान्तोऽकारो लोपमापद्यते सामान्ये अकारे परे / पुरुषम् / द्विवचने सन्धिः / पुरुषौ / बहुत्वे-पुरुष अस इति स्थिते। शशि सस्य च नः // 137 // शसि परे लिङ्गान्तोऽकारो दीर्घमापद्यते सस्य च नो भवति / पुन: सवर्णे दीर्घः / पुरुषान् / तथैव करणविवक्षायाम् // शेषा: कर्मेत्यादिना करणे तृतीया। पुरुष टा इति स्थिते। . इन टा॥१३८॥ आमंत्रण में 'सि' की संबुद्धि संज्ञा है // 133 // ह्रस्व स्वर नदी और श्रद्धा से परे 'सि' विभक्ति का लोप हो जाता है // 134 // ह्रस्व स्वर से परे नदी संज्ञक एवं श्रद्धा संज्ञक शब्दों से परे 'सि' विभक्ति का लोप हो जाता है। कोई-कोई जन आमंत्रण अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिए शब्दों से पहले अहो, हे, भो शब्दों का प्रयोग करते हैं। अत:-हे पुरुष ! द्विवचन और बहुवचन पूर्ववत् ही होते हैं। हे पुरुषौ, हे पुरुषाः / कर्म की विवक्षा होने पर शेष छहों विभक्तियाँ क्रम से कर्म, करण, संप्रदान, अपादान स्वामी आदि और अधिकरण अर्थों में होती हैं // 135 // शेष द्वितीया आदि छहों विभक्तियाँ कर्म आदि छह कारकों में होती हैं। इस प्रकार से कर्म अर्थ में द्वितीया विभक्ति आई। पुरुष+ अम्। ___अकार के आने पर लोप हो जाता है // 136 // सामान्य अकार के आने पर लिंगांत अकार का लोप हो जाता है। पुरुष + अम्= पुरुषम्। द्विवचन में सन्धि–पुरुषौ / पुरुष + शस् है / शानुबंध होकर पुरुष + अस् है। बहुवचन में शस् के आने पर अकार दीर्घ होकर स् को न हो जाता है // 137 // पुरुषा+ अन् सवर्ण को दीर्घ होकर पुरुषान् / करण अर्थ की विवक्षा में तृतीया विभक्ति आई तो पुरुष + टा अकारान्त लिंग से परे 'टा' को 'इन' आदेश हो जाता है // 138 // 1. शब्दान्त इत्यर्थः।