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________________ स्वरान्ता: पुल्लिङ्गाः रेफसोर्विसर्जनीयः // 130 // विरामे व्यञ्जनादौ च रेफसकारयोर्विसर्जनीयो भवति / परवर्णाभावो विरामः / अथवा यदनन्तरं वर्णान्तरं नोच्यते स विराम: / पुरुष: इति सिद्धं पदम् / तथैव लिङ्गार्थे द्वित्वविवक्षायां द्विवचन औ / सन्धिः / पुरुषौ // तथैव लिङ्गार्थे बहुत्वविवक्षायां बहुवचनं जस् / अनुबन्धलोप: / पुरुष अस् इति स्थिते / अकारे लोपमिति प्राप्ते तत्प्रतिषेधः। अकारो दीर्घं घोषवतीति वर्तते। सर्वविधिभ्यो लोपविधिर्बलवान् / लोपस्वरादेशयोः स्वरादेशो विधिर्बलवान / जसि // 131 // लिङ्गान्तोऽकारो दीर्घमापद्यते जसि परे / (एकदेशविकृतमनन्यवत्) / यथा कर्णपुच्छादिस्वाङ्गेषु भिन्नेषु सत्सु श्वा न गर्दभ: किंतु श्वा श्वैव। पुन: सवर्णे दीर्घ: / सस्य विसर्जनीयः। पुरुषाः / / तथैवामंत्रणार्थविवक्षायाम्। . आमन्त्रणे च // 132 // दूरस्थानामभिमुखीकरणमामंत्रणम्। तत्र प्रथमा विभक्तिर्भवति / रेफ और सकार को विसर्ग हो जाता है // 130 // विराम और व्यंजन आदि के आने पर रेफ और सकार को विसर्ग हो जाता है। यहाँ टीकाकार ने अनुवृत्ति के 'वा विरामे' सूत्र से विराम शब्द को टीका में लिया है। विराम किसे कहते हैं ? पर वर्ण के अभाव को विराम कहते हैं / अथवा जिसके बाद दूसरा वर्ण न कहा जावे उसे विराम कहते हैं। पुरुष + स् यहाँ स् को विसर्ग होकर पुरुष: बन गया। उसी प्रकार लिंग के अर्थ दो वचन की विवक्षा होने पर द्विवचन ‘औ' विभक्ति आई। पुरुष + औ 'ओकारे औ औकारे च' इस सूत्र से संधि होकर पुरुषो बना। पुन: लिंग के अर्थ में बहुत की विवक्षा में विभक्ति आई जस्। इसमें ज् का अनुबंध लोप हो गया तो पुरुष + अस्–यहाँ 'अकारे लोपम्' इस सूत्र से अकार का लोप प्राप्त था, किन्तु 'अकारो दीर्घ घोषवति' सूत्र अनुवृत्ति में चला आ रहा है। 'सभी विधि में लोप विधि बलवान् होती है' इस नियम से लोप विधि बलवान् हो रही थी कि लोप और स्वर आदेश इन दोनों में स्वर आदेश विधि बलवान् ... जस के आने पर लिंगांत अकार दीर्घ हो जाता है // 131 // जस् के ज् का अनुबंध लोप हो जाने के बाद अस् रहा पुन: 'जसि' इस सूत्र में जस् के आने पर ऐसा क्यों कहा ? क्योंकि अब यहाँ जस् है ही नहीं। “एक देश विकृतमनन्यवत्" इस नियम के अनुसार ज् का अनुबंध लोप होने पर भी यह जस् ही माना जावेगा जैसे कुत्ते के कान या पूँछ आदि अंगों के छिन्न कर देने पर भी कुत्ता कुत्ता ही कहलाता है। अत: पुरुष + अस् / सवर्ण को दीर्घ करके स् को विसर्ग करके पुरुषा: बना। उसी प्रकार से आमंत्रण के अर्थ की विवक्षा होने पर . आमंत्रण में भी प्रथमा विभक्ति होती है // 132 // आमंत्रण किसे कहते हैं ? दूर में स्थित जनों को अपने अभिमुख करना, बुलाना आमंत्रण कहलाता है। पुरुष + सि।
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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