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________________ 34 कातन्त्ररूपमाला सि औ जस् / अम् औ शस् / टा भ्याम् भिस् / डे भ्याम् भ्यस् / ङसि भ्याम् भ्यस् / ङस् ओस् आम्। ङि ओस् सुप् / तस्मादर्थवतो लिङ्गात्परा: स्यादयो विभक्तयो भवन्ति / ता: पुन: सप्त। सि औ जस इति प्रथमा। अम् औ शस् इति द्वितीया / टा भ्याम् भिस् इति तृतीया। उ भ्याम् भ्यस् इति चतुर्थी / ङसि भ्याम् भ्यस् इति पञ्चमी / ङस् ओस् आम् इति षष्ठी। ङि ओस् सुप् इति सप्तमी / एवं युगपत् सर्वप्रत्ययप्रसङ्गे वक्तुर्विवक्षया शब्दार्थप्रतिपत्तिरिति लिङ्गार्थविवक्षायाम्। प्रथमा विभक्तिर्लिङ्गार्थवचने // 127 // लिङ्गार्थवचने प्रथमा विभक्तिर्भवति / इति लिङ्गार्थे प्रथमा / तत्रापि युगपदेकवचनादिप्राप्तौ। . एकं द्वौ बहून् // 128 // अर्थान् वक्तीति, एकस्मिन्नर्थे एकवचनं द्वयोरर्थयोर्द्विवचनं बहुष्वर्थेषु बहुवचनं भवति। इति लिङ्गाथैकत्वविवक्षायां प्रथमैकवचनं सि / पुरुष सि इति स्थिते / योऽनुबन्धोऽप्रयोगी॥१२९॥ य: अनुबन्धः स अप्रयोगी भवति / अनुबन्धः कः ? इजशटङपा विभक्तिष्वनुबन्धाः / वा विरामे .. इति वर्तमाने। सि औ जस्-ये प्रथमा विभक्तियाँ हैं। अम् औ शस्-ये द्वितीया विभक्तियाँ हैं। टा भ्याम् भिस्-ये तृतीया विभक्तियाँ हैं। डे भ्याम् भ्यस्—ये चतुर्थी विभक्तियाँ हैं। ङसि भ्याम् भ्यस्-ये पंचमी विभक्तियाँ हैं। डस् ओस् आम्-ये षष्ठी विभक्तियाँ हैं। ङि ओस् सुप–ये सप्तमी विभक्तियाँ हैं। इस प्रकार से पुरुष शब्द से एक साथ संपूर्ण विभक्तियों के लगने का प्रसंग प्राप्त हो गया तो वक्ता की विवक्षा से शब्द के अर्थ का ज्ञान होता है इसलिये लिंग-शब्दमात्र के अर्थ की विवक्षा के होने पर अगला सूत्र लगता है। लिंग के अर्थ को कहने में प्रथमा विभक्ति होती है // 127 // इसलिये शब्दमात्र के अर्थ में प्रथम विभक्ति आ गई। उसमें भी एक साथ ही एकवचन आदि सभी प्राप्त हो गये तब एक दो और बहवचन होते हैं // 128 // जो अर्थ को कहता है वह लिंग है इस नियम के अनुसार एक के अर्थ में एकवचन, दो में द्विवचन और तीन आदि में बहुत के अर्थ में बहुवचन होता है। इस प्रकार से यहाँ शब्द के अर्थ में एक ही विवक्षा होने पर प्रथमा विभक्ति का एकवचन 'सि' आया तो पुरुष+सि ऐसी स्थिति हुई। जो अनुबंध है वह अप्रयोगी है // 129 // अनुबंध किसे कहते हैं ? इन सातों ही विभक्तियों में इ ज् श् ट् ङ् और प ये अनुबंध संज्ञक हैं। इससे सि के इ का लोप होकर पुरुष + स् रहा। __ "वा विरामे" यह सूत्र, सूत्र के क्रम में चला आ रहा है / अर्थात् सूत्रकार सूत्रों को क्रम से लिखते हैं और टीकाकार अपने अपने प्रकरणों से सूत्रों को आगे-पीछे कर लेते हैं। सूत्रकार के सूत्रों के क्रम से जो सूत्र होता है वह अनुवृत्ति में चला आता है उसी प्रकार से यहाँ पर 'वा विरामे' यह सूत्र अनुवृत्ति में है।
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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