________________ 340 कातन्त्ररूपमाला एषामुपसर्गेऽप्यनुपसर्गेपि नाम्नि अप्यनाम्नि उपपदे क्विपू भवति / उपसीदतीति उपसत् / सत् / सभासत् / सूरदादिः प्रसूः / सूः / अण्डसू: / द्विष् अप्रीतौ / विद्विट् / द्विट् / मित्रद्विट् / द्रुह जिघांसायां प्रधुक् / धुक् / मित्रधुक् प्रधुक् गोधुक् / प्रयुक् / युक् अश्वयुक् / संवित् वित् वेदवित् / प्रभित् भित् काष्ठभित् / प्रच्छित् छित् रज्जुच्छित् / प्रजित् जित् अवनिजित् / अवनी: नी: सेनानी: / विराट् राट् गिरिराट् / कर्मण्युपमानेत्यदादौ दशष्टक्सकौ च // 670 // कर्मण्युपमाने त्यदादौ उपपदे दृशष्टक्सकौ च भवत: / चकारात् क्विप् च / आ सर्वनाम्नः // 671 // दृग्दृशदृक्षेषु परत: सर्वनाम्न आकारो भवति / दृशिर् प्रेक्षणे। तमिव पश्यतीति अथवा स इव दृश्यते इति तादृशः / तादृक्षः / तादृक् / यादृशः / यादृक् / यादृक्षः / एतादृशः / एतादृक्षः / एतादृक् / इदमीः // 672 // दृगादिषु परत इदमीर्भवति / इदमिव पश्यतीति ईदृशः / ईदृक्ष: ईदृक् / किं कीः॥६७३ // दृगादिषु किं कीर्भवति / किमिव पश्यतीति कीदृशः / कीदृक्षः कीदृक् / उपसीदति–उपसत् षद् को सीद आदेश हुआ था मूल धातु षद् है / उपसर्ग के अभाव में 'सत्' बना / नाम उपपद में होने पर सभासत् बना / सूङ् प्राणि प्रसवे-प्रसू: सू: अण्डसूः / द्विष्-अप्रीति करना, विद्विट् द्विट्-मित्रद्विट् / द्रुह-द्रोह करना प्रद्रु लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में -हचतुर्थांतस्याधातोः' इत्यादि 290 सूत्र से द्रुह के द को ध.होकर 'दादेर्हस्यग:' सूत्र 332 से हकार को गकार होकर प्रधुक् बना। ध्रुक्, गुरू ध्रुक् आदि बनते हैं। युज् से—प्रयुक् युक् अश्वयुक् / वित् से-संवित् वित् वेदवित् / भिद से—प्रभित् भित् काष्ठभित् / छिद् से—प्रच्छित् छित् रज्जुछित् / जि से–प्रजित्, जित् अवनिजित् / नी से—अवनी: नी: सेनानी: / राज् से-विराट् राट् गिरिराट् बने हैं। उपमान अर्थ में त्यदादि उपपद में होने पर दृश् धातु से टक् और सक प्रत्यय होते हैं // 670 // . चकार से क्विप् प्रत्यय भी होता है। -दृग दृश और दृक्ष से परे सर्वनाम को आकार हो जाता है // 671 // दृशिर्-देखना। तमिव पश्यति अथवा स इव दृश्यते / टक् प्रत्यय से 'तत् दृश् अ' तत् को आकार होकर तादश बना, क्विप में तादश और सक में कानबंध होकर 'छशोश्च' सत्र 122 से श को ष् होकर 'षढोक: से' सूत्र 119 से ष को क् होकर 'नामिकरपरः' इत्यादि सूत्र से क् से परे स को ष होकर 'कषयोगेक्षः' नियम से क्ष होकर तादृक्ष बना। तीनों को लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति में तादृश: तादृक् तादृक्ष: बनेंगे। ऐसे ही यत् से यादृश: आदि, एतत् से एतादृश: आदि बनेंगे। दृग् दृश् और दृक्ष के आने पर इदं को 'ई हा जाता है // 672 // . इदं इव पश्यति ईदृश: ईदृक् ईदृक्षः। दृग् आदि के आने पर किं को 'की' आदेश होता है // 673 // किमिव पश्यति—कीदृशः कीदृक् कीदृक्षः।