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________________ 296 कातन्त्ररूपमाला तस्य लुग्वा // 431 // तस्य चेक्रीयितस्य लुग्वा' भवति / यस्य स्थाने यो विधीयते स स्थानीतर आदेश: / स्थानीव भवत्यादेश: / प्रकृतिग्रहणे चेक्रीयितलुगन्तस्यापि ग्रहणं। धातुप्रकृतीनां ग्रहणे चेक्रीयितलुगन्तस्यापि धातोर्ग्रहणं भवतीति द्विवचनादि कार्यं भवति // चर्करीतं परस्मैपदमदादौ दृश्यते। . चर्करीताद्वा // 432 // चर्करीताद्धातोर्वा इड् भवति व्यञ्जनादौ गुणिनि सार्वधातु के परे / यिलोपे च चेक्रीयितः // 433 // यिलोपे आयिलोपे च परस्मैपदं भवति / अत्यर्थं भवति बोभवीति बोभोति बोभूत: / स्वरादाविवर्णोवर्णान्तस्य धातोरियुवौ / बोभुवति / बोभूयात् बोभूयातां बोभूयुः // बोभवीतु बोभोतु बोभूतात् बोभूतां बोभुवतु / बोभूहि बोभूतात् बोभूतं बोभूत / अबोभवीत् अबोभोत् अबोभूतां अबोभुवुः / पापचीति / पापक्ति पापक्त: पापचति / पापच्यात् / पापक्तु पापक्तात् पापक्तां पापचतुः। हुधुड्भ्यां हेर्द्धिः // पापग्धि पापक्तात् पापक्तं पापक्त / अपापचीत् अपापक अपापक्तां अपापचुः // टुणदि समृद्धौ / नानंदीति नाति नानंत: नानंदति / ध्वंसु गतौ च / दनीध्वसीति दनीध्वस्त: दनीध्वसति / एवं सर्वमवगन्तव्यं / शेशयोति // न तिबनुबन्धगणसंख्यैकस्वरोक्तेषु // 434 // तिबनुबन्धगणसंख्यैकस्वर एभिरुक्तेषु निदानेषु प्रकृतिग्रहणे चेक्रीयितलुगन्तस्य ग्रहणं न भवति / / तिपा उक्ते-सोषवीति सोषोति / सोषूयात् / सोषवीतु सोषोतु सोषूतात् सोषूतां सोषुवतु / सोहि सोषूतात् उस चेक्रीयित प्रत्यय का विकल्प से लक होता है // 431 // जिसके स्थान में जो किया जाता है वह स्थानीतर आदेश है / स्थानी के समान ही आदेश होता . है। प्रकृति के ग्रहण करने में चेक्रीयित लुगन्त का भी ग्रहण होता है। धातु और प्रकृति के ग्रहण करने में चेक्रीयित लुगन्त धातु का भी ग्रहण होता है। इस प्रकार से कार्य होता है। अदादि में चर्करीत परस्मैपदी हो जाता है। व्यञ्जनादि गुणी सार्वधातुक के आने पर चर्करीत धातु से ईट् विकल्प से होता है // 432 // __ यि आयि प्रत्यय के लोप होने पर परस्मैपद होता है // 433 // अत्यर्थं भवति = इट् गुण होकर दीर्घ होकर बोभवीति इट् के अभाव में बोभोति / बोभूत: / बोभू अन्ति “स्वरादाविवर्णोवर्णान्तस्य धातोरियुवौ” सूत्र 83 से बोभुवति नकार का लोप हुआ है। बोभूयात् / बोभवीतु, बोभोतु / अबोभवीत्, अबोभोत् / * पच-पापचोति, पापक्ति / पापच्यात् / पापचीतु, पापक्तु / “हुधुड्भ्यां हेधिः” सूत्र से पापग्धि / अपापचीत्, अपापक् / व्यञ्जनादिस्योः से दि सि का लोप और च को क् होकर अपापक बना। टुनदि-समृद्ध होना / नानंदीदि / नाति ध्वंसु-गति अर्थ में है। 416 सूत्र से नी का आगम हुआ है। दनी ध्वसीति / शेशयीति, शेशेति। इसी प्रकार से सभी समझ लेना चाहिये। तिप, अनुबंध, गुण, संख्या और एक स्वर के कहने पर चेक्रीयित लुगन्त का ग्रहण नहीं होता है // 434 // १.लुकि सति चेक्रीयितस्य चर्करीतसंज्ञा बोद्धव्या।
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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