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________________ तिङन्त: 297 सोषूतं सोषूत / सोषवाणि सोषवाव सोषवाम // तिपा निर्देशात् सूते: पञ्चम्यामिति गुणप्रतेषेधो न स्यात् / अनुबन्धोक्ते:-शेशित: शेश्यति / शिङ सार्वधातुके इति अनुबन्ध इति निर्देशात् गुणो न भवति / गुणोक्ते:-चोकोटीति / कुटादेरनिनिचट्स्विति गुणप्रतिषेधो न स्यात् / संख्योक्ते:-रोरुदीति / रोरोत्ति / रुदादिः पञ्चको गण इति रुदादेः सार्वधातके इतीण न स्यात। एकस्वरोक्ते:-पापचीति / अनिडेकस्वरादात / इत्येकस्वराधिकारे पचिवचीत्यादिनेटप्रतिषेधो न स्यात् // वावचीति / वावक्ति वावक्तः वावचति / जाहेति / दादेति दात्त: दादति। .. अभ्यस्तस्य चोपधाया नामिनः स्वरे गुणिनि सार्वधातुके // 435 // अभ्यस्तस्य चोपधाया नामिनो गुणो न भवति स्वरादी गुणिनि सार्वधातुके परे / अत्यर्थं पुन: पुनर्वा दीव्यति देदिवीति। वोर्व्यञ्जने ये॥४३६ // धातोर्यकारवकारयोलोंपो भवति यकारवर्जिते व्यञ्जने च परे / देदेति देत: देदिवति / सोषवीति सोषोति / नानहीति नानद्धि। अभिषोषवीति अभिषोषोति / पुन: पुनर्वा क्रीणाति चेक्रीयीति चेक्रेति / तोतोदीति तोतोत्ति। - रि रो री च लुकि // 437 // ऋमतो धातोरभ्यासस्यान्ते रि रो री च भवति चेक्रीयितस्य लुकि / मरिमरीति मर्मरीति मरीमरीति / मरिमर्ति मर्मर्ति मरीमति / मर्मत: मरीमृत: मरिमृत: / मर्मति मरीमति मरिमति / मरीमरीषि मर्मरीषि तिप् से कहने पर-सोषवीति सोषोति, सोषूयात् / सोषवीतु सोषोतु / सोसूहि / सोषवाणि सोषवाव सोषवाम, तिप् के द्वारा निर्देश होने से 'सूते: पञ्चम्यां' 111 सूत्र से तीनों में गुण का प्रतिषेध नहीं होता है। अनुबंध से कहने पर-शेशित: शेश्यति / “शीङ सार्वधातुके” इस सूत्र से अनुबंध होने से गुण नहीं होता है। ___ गुण से कहने पर-कुट-कुटिलता। चोकोटीति / “कुटादेरनिनिचट्स्विति” इस गुण का प्रतिषेध नहीं हुआ है। संख्या के कहने पर रोरुदीति, रोरोत्ति / “रुदादि पञ्चको गण:” रुदादि से सार्वधातुक में इण् नहीं होता है। एक स्वर के कहने पर—पापचीति ‘अनिडेकस्वरादात्' इत्येक स्वर के अधिकार में “पचि वचि" इत्यादि से इट् का प्रतिषेध नहीं होता है। वावचीति, वावक्ति / जोहति / दादेति / __स्वरादि गुणी सार्वधातुक के आने पर अभ्यस्त और नामि उपधा को गुण नहीं होता है // 435 // ___अत्यर्थं दीव्यति = देदिवीति-नीचे के सूत्र से गुण का निषेध हुआ। यकार वर्जित व्यंजन के आने पर धातु के यकार वकार का लोप हो जाता है // 436 // देद्यत: देदिवति “छवो: शठौ पञ्चमे च" 392 सत्र से ऊकार होकर देदि ऊ तस = देद्यत: बना। देदेति / सोषवीति, सोषोति / नानहीति, नानद्धि / अत्यर्थं क्रीणाति = चेक्रयीति, चेक्रेति / तोतोदीति, तोतोत्ति। चेक्रीयित लुक् होने पर ऋकार वाले धातु के अभ्यास के अंत में रि र् री आगम हो जाते हैं // 437 //
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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