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________________ . 292 कातन्त्ररूपमाला धातोर्यशब्दचक्रीयितं क्रियासमभिहारे // 409 // क्रियासमभिहारे वर्तमानाद्धातोर्व्यञ्जनादेर्यशब्दग्रहणाधिक्याच्चेक्रीयितसंज्ञको यो भवति क्रियासमभिहारे / शुभरुचादिवर्जितादेकस्वरत्परो यशब्दो भवति / क्रियासमभिहार: पौन:पुन्यं भृशार्थो वा। भृशं भवति पुन: पुनर्वा भवति। गुणश्चक्रीयिते // 410 // अभ्यासस्य गुणो भवति चेक्रीयिते प्रत्यये परे / चेक्रीयितान्तात् // 411 // चेक्रीयितान्ताद्धातो: कर्तर्यात्मनेपदं भवति / बोभूयते / बोभूयेत / बोभूयतां / अबोभूयत / अस्य च इति लोप: / अबोभूयिष्ट / बोभूयाञ्चक्रे / बोभूयिता / बोभूयिषीष्ट / अबोभूयिष्ट / अबोभूयिष्यत / दीघोऽनागमस्य॥४१२ // अनागमस्याभ्यासस्य दीपो भवति चेक्रीयिते प्रत्यये परे। पापच्यते। पापच्येत / पापच्यतां / .. अपापच्यत। यस्याननि // 413 // व्यञ्जनात्परस्य यस्य लोपो भवति अननि प्रत्यये परे / अपापचिष्ट / गत्यर्थात्कौटिल्ये च // 414 // गत्यर्थाद्धातो: कौटिल्येऽर्थे चेक्रीयितसंज्ञको यो भवति / अथ चेक्रीयित प्रत्ययान्त धातु प्रकरण प्रारंभ। क्रिया समभिहार में धातु से चेक्रीयित प्रत्यय 'य' होता है // 409 // क्रिया समभिहार अर्थ में वर्तमान धातु से व्यञ्जनादि 'य' शब्द ग्रहण की अधिकता से चेक्रीयित संज्ञक 'य' प्रत्यय होता है। शुभ रुचादिवर्जित एकस्वर से परे 'य' प्रत्यय होता है। क्रिया समभिहार किसे कहते हैं ? पौन: पुन्यं भृशार्थो वा पुन: पुन: अथवा अतिशय अर्थ को क्रिया समभिहार कहते हैं। भृशं भवति, पुन: पुनर्वा भवति / भूभू य “चण् परोक्षा चेक्रीयित सत्रतेषु" सत्र से द्वित्व होकर अभ्यास को तृतीय अक्षर हो गया है। चेक्रीयित प्रत्यय के आने पर अभ्यास को गुण होता है // 410 // चेक्रीयितान्त धातु से कर्ता में आत्मनेपद होता है // 411 // 'ते धातवः' से धातु संज्ञा होकर ते विभक्ति आकर बोभूयते बना / बोभूयेत, बोभूयतां अबोभूयत / 'अस्य च' सूत्र से अकार का लोप होकर इट् सिच् होकर अबोभूयिष्ट / बोभूयाञ्चक्रे बोभूयिता। बोभूयिषीष्ट / बोभूयिष्यते / अबोभयिष्यत / पपच यते / चेक्रीयित प्रत्यय के आने पर अनागम अभ्यास को दीर्घ हो जाता है // 412 // पापच्यते / पापच्येत / पापच्यतां / अपापच्यत / अन् प्रत्यय के न आने पर व्यंजन से परे 'य' का लोप हो जाता है // 413 // इट् सिच् होकर अपापचिष्ट / इत्यादि / क्रम-पादविक्षेपण करना। गत्यर्थ धातु से कुटिलता अर्थ में चेक्रीयित संज्ञक 'य' प्रत्यय होता है // 414 //
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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