________________ तिडन्तः 285 हन्तेर्वधिरादेशो भवति आशिषि च परे / वाधिषीष्ट वधिषीष्ट / ग्राहिषीष्ट / ग्रहीषीष्ट / दर्शिषीष्ट / दक्षीष्ट // भविष्यन्ती। भाविष्यते भविष्यते। साविष्यते सविष्यते। चायिष्यते चेष्यते। घानिष्यते हनिष्यते। ग्राहिष्यते। ग्रहीष्यते। दर्शिष्यते दृक्ष्यते // क्रियातिपत्त्यां। अभाविष्यत अभविष्यत / असाविष्यत असविष्यत असोष्यत / अचायिष्यत अचेष्यत। अघानिष्यत। अहनिष्यत। अग्राहिष्यत अग्रहीष्यत / अदर्शिष्यत अदृक्ष्यत / इत्यादि / एवं सर्वमुन्नेयं / अथ सनादिप्रत्ययान्ता धातवः प्रदर्श्यन्ते गुप्तिज्किद्भ्यः सन्॥३७२॥ गुप् तिज कित् एभ्य: पर: सन् भवति स्वार्थे / गुपादेश्च // 373 // गुपादेः सनि परे नेड् भवति। . स्मिपूज्वश्कृगृधृप्रच्छां सनि // 374 // एषां धातूनां सनि परे इडागमो भवति / इति स्मिडादिनियमाभावात् / सनि चानिटि // 375 // नामिन उपधाया गुणो न भवति अनिटि सनि परे / द्विवचनमभ्यासकार्यं च कार्य / ते धावतः // 376 // ते सनादिप्रत्ययान्ता: शब्दा: धातुसंज्ञा भवन्ति / . पूर्ववत्सनन्तात्॥३७७॥ वाधिषीष्ट, वधिषीष्ट / ग्राहिषीष्ट, ग्रहीषीष्ट / दर्शिषीष्ट दृक्षीष्ट / - भविष्यन्ती में-भाविष्यते। भविष्यते। चायिष्यते। चेष्यते। घानिष्यते हनिष्यते। ग्राहिष्यते ग्रहीष्यते / दर्शिष्यते, द्रक्ष्यते। क्रियातिपत्ति में-अभाविष्यत अभविष्यत / असाविष्यत असविष्यत असोष्यत। अचायिष्यत अचेष्यत / अघानिष्यत अहनिष्यत / अग्राहिष्यत अग्रहीष्यत। अदर्शिष्यत / अद्रक्ष्यत / इत्यादि / इसी प्रकार सभी समझ लेना चाहिये। अथ सनादिप्रत्ययान्त धातु कहे जाते हैं। गुप् तिज कित् से परे स्वार्थ में सन् प्रत्यय होता है // 372 // गुपादि से सन् प्रत्यय के आने पर इट् नहीं होता है // 373 // स्मिङ् पूङ् रञ्ज आदि धातु को सन् के आने पर इट् का आगम हो जाता है // 374 // इस प्रकार से स्मिङ् आदि के नियम का अभाव है। अनिट् सन् के आने पर नामि की उपधा को गुण नहीं होता है // 375 // सन् प्रत्यय के आने पर द्वित्व एवं अभ्यास कार्य भी होते हैं। . गुप् गुप् सन् ते जुगुप् स ते वे सनादि प्रत्ययान्त शब्द धातु संज्ञक होते हैं // 376 // . अर्थात् जो धातु आत्मनेपदी है वह आत्मनेपद होता है अत: जुगुप्ससे आत्मनेपद हुआ। सन्नंत धातु से पूर्ववत् पद संज्ञा होती है // 377 //