________________ तिङन्तः 279 भविष्यति भविष्यन्तीत्यादिना भविष्यति काले आशी: / इष्टस्याशंसनमाशीः / आशिषि च परस्मै // 355 // सर्वेषां धातूनां गुणो न भवति आशिषि च सर्वत्र परस्मैपदे परे / भूयात् भूयास्तां भूयासुः / भूया: भूयास्तं भूयास्त / भूयासं भूयास्व भूयास्म / विनिमये वागतिहिंसाशब्दार्थहस इति चुरादित्वादात्मनेपदं / व्यतिभविषीष्ट। एधिषीष्ट एधिषीयास्तां एधिषीरन्। एधिषीष्ठा: एधिषीयास्थां एधिषीध्वं / एधिषीय एधिषीवहि / पच्यात् / पक्षीष्ट नद्यात् / स्रंसिषीष्ट। मंसिषीष्ट। ध्वंसिषीष्ट / स्वपिवचियजादीनामिति संप्रसारणम् / नाम्यन्तानामिति दीर्घश्च / सुप्यात् / इज्यात् / व्यञ् संवरणे / उभयपदी / वीयात् वीयास्तां वीयासुः। व्यासीष्ट व्यासीयास्तां व्यासीरन्। चिञ् चयने। चीयात् / चेषीष्ट। वेञ् तन्तुसन्ताने / उभयपदी / ऊयात् ऊयास्तां ऊयासुः / वासीष्ट वासीयास्तां वासीरन् / ज्या वयोहानौ / पराजीयात् / व्यध ताडने / विध्यात् / अद्यात् / अशूञ् व्याप्तौ / अशिषीष्ट अशिषीयास्तां अशिषीरन् / बुङ् व्यक्तायां वाचि / ब्रुवो वचिः // 356 // ब्रुवो वचिर्भवत्यसार्वधातुकविषये। उच्यात् / वक्षीष्ट / इत्यादि / अध्यात्। शयिषीष्ट / हूयात् / हासीष्ट। आशिष्येकारः // 357 // दामादीनामेकारो भवत्याशिष्यगुणे / विधेयात् / विधासीष्ट विधासीयास्तां विधासीरन् / उभयपदी। देयात् / मेयात् / गेयात् / पेयात् / स्थेयास्तां / अवसेयास्तां / हेयात् / अगुण इति किं ? धासीष्ट . अथ आशी: प्रकरण प्रारंभ 'भविष्यति भविष्यन्त्याशी:श्वस्तन्य:' 353 सूत्र से भविष्यत् काल में आशी: विभक्ति होती है / इष्ट का आशंसन करना आशी: है अर्थात् आशीर्वाद देना। आ शिष् में सर्वत्र परस्मैपद में सभी धातुओं को गुण नहीं होता है // 355 // . भूयात् भूयास्तां भूयासुः / भूया: भूयास्तं भूयास्त / भूयासं / भूयास्व भूयास्म। विनिमय अर्थ में—अदल बदल करना 'विनिमये वा गतिहिंसा-शब्दार्थहस' इति चुरादित्वात् आत्मने पदं / वि और अति उपसर्ग से भू धातु आत्मनेपदी हो जाता है। आत्मनेपदी में गुण हो जायेगा। व्यतिभविषीष्ट / एधिषीष्ट / पच्यात् / पक्षीष्ट / नद्यात् / संसिषीष्ट / भ्रंसिषीष्ट / ध्वंसिषीष्ट / 'स्वपिवचियजादीनां' इस सूत्र से संप्रसारण हुआ है। सुप्यात् / इज्यात्। व्यञ्-उभयपदी है-संप्रसारण दीर्घ होकर। वीयात्। व्यासीष्ट / चिञ्-चयने / चीयात् / चेषीष्ट / वेञ्–उभयपदी / ऊयात् / वासीष्ट / ज्या-वयोहानौ / पराजीयात् / * व्यध-ताडन करना। विध्यात् / अद्यात् / अशू–व्याप्तौ / अशिषीष्ट / बूञ्-स्पष्ट बोलना। ब्रू को असार्वधातुक में वच् हो जाता है // 356 // व को उ संप्रसारण। उच्यात् / वक्षीष्ट / इत्यादि। इक्–स्मरण करना। अधीयात् / शयिषीष्ठ / हूयात् / हासीष्ट / आशिष में अगुण विभक्ति के आने पर दा मा, आदि धातुओं को एकार हो जाता है // 357 // . वा-विधेयात् / विधासीष्ट / दा-देयात् / मेयात् / गेयात् / पेयात् / स्थयात् / अवसेयात् / हेयात् /