________________ कातन्त्ररूपमाला 220 रुदादिभ्यश्च परयोर्दिस्योरादिरीद्भवति / अरोदीत् / रुदादेश्च // 108 // रुदादेश्च परयो दिस्योरादिरद्भवति / अरोदत् अरुदितां अरुदन् / अरोदी: अरोद: अरुदितं अरुदित / अरोदं अरुदिव अरुदिम। एवं पञ्चानाम। बिप्वप शये। स्वपिति स्वपित: स्वपन्ति / स्वपिषि / स्वप्यात स्वप्यातां स्वप्युः / स्वपितु स्वपितात् स्वपितां स्वपन्तु / अस्वपीत् / अस्वपत् अस्वपतां अस्वपन् / श्वस प्राणने / श्वसिति / श्वस्यात् / श्वसितु / अश्वसीत् / अश्वसत् / अनपि च / प्राणिति / प्राण्यात् / प्राणितु / अप्राणीत् / अप्राणत् / जक्ष भक्षहसनयोः / जक्षादिश्च // 109 // जक्षादीनामभ्यस्तसंज्ञा भवति / जक्षिति जक्षितः / . लोपोऽभ्यस्तादन्तिनः // 11 // अभ्यस्तात्परस्य अन्तेर्नकारस्य लोपो भवति / जक्षति / जक्ष्यात् जक्ष्यातां जक्ष्युः / जक्षितु जक्षितात् जक्षितां जक्षतु / अजक्षीत् / अजक्षत् अजक्षतां। अनउस्सिजभ्यस्तविदादिभ्योऽभुवः / इत्यनेन उस् भवति / अजक्षुः / भावकर्मणोः / रुद्यते / सुप्यते / इत्यादि / सूङ् प्राणिगर्भविमोचने / सूते सुवाते सुवते / सुवीत सुवीयातां सुवीरन् / सूतां सुवातां सुवतां / सूष्व सुवाथां / सूध्वम् // सूतेः पञ्चम्याम्॥१११॥ सूते: पञ्चम्युत्तमे च गुणो न भवति / सुवै सुवावहै सुवामहै। असूत असुवातां / सूयते / हन् हिंसागत्योः / हन्ति। ह्यस्तनी में अट का आगम और गुण होकर अरोदीत्, अरोदी: बना। यह वैकल्पिक होता है अत: रुदादि से परे दि, सि की आदि में 'अत्' होता है // 108 // अत: अरोदत्, अरोद: बना। ऐसे ही पाँचों के रूप समझिये। विष्वप्-सोना / स्वपिति स्वपित: स्वपन्ति / इत्यादि। अस्वपीत्, अस्वपत् आदि / श्वस् धातु श्वास लेने अर्थ में है। श्वसिति / श्वस्यात् / श्वसितु / अश्वसीत् अश्वसत् / प्राणिति / प्राण्यात् / प्राणितु / अप्राणीत्, अप्राणत् / जक्ष् धातु खाने और हँसने अर्थ में है। जक्ष् इति = जक्षिति, जक्षित: / जक्ष् अन्ति। जक्षादि को अभ्यस्त संज्ञा हो जाती है // 109 // अभ्यस्त से परे अन्ति के नकार का लोप हो जाता है // 110 // अत: 'जक्षति' बना। सप्तमी में जक्ष्यात् / पंचमी में-जक्षितु, जक्षितात् / जक्षितां / जक्षतु / ह्यस्तनी में-अजक्षीत्; अजक्षत् / जक्ष् अन् है सूत्र १६६वें से भू को छोड़ कर सिच् अभ्यस्त और विवादि से परे अन् को 'उस्' हो जाता है अत: ‘अजक्षुः' बना। भावकर्म में रुद्यते / सुप्यते / इत्यादि। षूङ् धातु जन्म लेने अर्थ में है / “धात्वादेः ष: स:” सूत्र से 'स' हो गया। अनुबंध होने से यह धातु आत्मनेपदी है। सूते-सू आते ऊ को ८३वें सूत्र से उव् होकर सुवाते, 'सू अन्ते' है 'आत्मने चानकारत' ७९वें सूत्र से नकार का लोप होकर 'सुवते' बना / सुवीत, सुवीयातां सुवीरन् / सूतां, सुवातां, सुवतां / सू धातु को पञ्चमी के उत्तम पुरुष में गुण नहीं होता है // 111 // अत: सुवै, सुवावहै सुवामहै / असूत / भाव में सूयते / 'हन्' धातु हिंसा और गति अर्थ में है।