________________ तद्धितं 173 बाहादेश्च विधीयते // 491 // बाह्वादेर्गणादिण् प्रत्ययो भवति अपत्येऽभिधेये / उपबाहोरपत्यमौपबाहवि: / भाद्रबाहविः / ___नस्तु क्वचित् // 492 // नस्य लोपो भवति क्वचित् लक्ष्यानुरोधात् // उडुलोम्नोऽपत्यं औडुलोमिः / एवमाग्निशर्मिः / मनोः षण्ष्यौ // 493 // षष्ठ्यन्तान्मनुशब्दात्परौ षण्ष्यौ प्रत्ययौ भवत: अपत्यार्थे / मनोरपत्यं मानुषः / मनुष्यः / मानवः / वाणपत्ये इति अण् भवति। कुर्वादेर्यण॥४८५॥ कुर्वादेर्गणातू यण् प्रत्ययो भवति अपत्येऽर्थे / पक्षे कुरोरपत्यं कौरव्य: / वाणपत्ये इति अण् भवति / कौरव: / लहस्यापत्यं लाह्यः। . क्षत्रादियः // 494 // षष्ठ्यन्तात् क्षत्रशब्दात्पर इय: प्रत्ययो भवति अपत्येर्थे / क्षत्रियः। बाहु आदि गण से अपत्य अर्थ में इण् प्रत्यय होता है // 491 // पूर्ववत् विभक्ति का लोप, वृद्धि 'उ' को ओ, ओ को अव् होकर औपबाहवि लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आकर 'औपबाहवि:' बना, वैसे ही भाद्रबाहवि: बना। : उडुलोम्न: अपत्यं, अग्निशर्मण: अपत्यं हैं। 'बाह्वादेश्च विधीयते' सूत्र से इण् प्रत्यय होकर पूर्ववत् सारे कार्य होंगे यथा-उडुलोमन् + ङस् विभक्ति का लोप, वृद्धि हुई। ___कहीं लक्ष्य के अनुरोध से नकार का लोप हो जाता है // 492 // इस सूत्र से नकार का लोप ‘इवर्णा' इत्यादि से 'अ' का लोप होकर लिंग संज्ञा एवं विभक्ति आकर 'औडुलोमि:' बना। वैसे ही 'आग्निशर्मि:' बना। मनोरपत्यं है षष्ठ्यंत मनु शब्द से परे अपत्य अर्थ में षण् और ष्य और अण् प्रत्यय होते हैं // 493 // मनु + ङस् षण णानुबंध से पूर्वस्वर को वृद्धि लिंग संज्ञा, विभक्ति आकर 'मानुषः' बना / 'ष्य' प्रत्यय से मनुष्यः / अण् प्रत्यय से मानव: बना। कुरु आदि गण से अपत्य अर्थ में यण् प्रत्यय होता है // 485 // कुरो: अपत्यं कुरु + ङस् यण् “वृद्धिरादौ सणे” ४७४वें सूत्र से वृद्धि होकर एवं उवर्ण को ओ, ओ को अव् होकर लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आने से 'कौरव्य:' बना। 'वाणपत्ये' सूत्र ४७३वें से अण: प्रत्यय होकर पूर्ववत् सारी क्रियायें होकर 'कौरव:' बना। लहस्यापत्यं है यण् प्रत्यय से 'लाह्यः' बना। क्षत्रस्यापत्यं है। षष्ठ्यंत क्षत्र शब्द से परे अपत्य अर्थ में 'इय' प्रत्यय हो जाता है // 494 // "इवर्णावर्ण" इत्यादि से 'अ' का लोप होकर लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आने से क्षत्रियः' बना। १.यह सूत्र पहले आ चुका है।