________________ 174 कातन्त्ररूपमाला कुलादीनः / / 495 / / कुलशब्दात्पर: ईन प्रत्ययो भवति जातार्थे / कुले जात: कुलीनः / इत्यादि। रागानक्षत्रयोगाच्च समूहात्सास्य देवता। तद्वेत्त्यधीते तस्येदमेवमादेरणिष्यते // 1 // रागात् अण्। कुसुम्भेन रक्तं कौसुम्भं / एवं हारिद्रं वस्त्रं / कौंकुम / मांञ्जिष्ठं। काषायं / नक्षत्रयोगात् / पुष्येण चन्द्रयुक्तेन युक्तः कालः / / पुष्यतिष्ययोर्नक्षत्रे // 496 // नक्षत्रार्थे वर्तमानयोः. पुष्यतिष्ययोर्यकारस्य लोपो भवति अणि परे / इति यकारलोप: / मत्स्यस्य यस्य स्त्रीकारे ईये चागस्त्यसूर्ययोः // इति सूत्राद्य इति अनुवर्तनं / पौष: काल: / पौषो मास: / पौषी रात्रिः / पौषमहः / एवं तैषी मास: / तैषी रात्रि: / तैषमहः / चित्रया चन्द्रयुक्तया युक्त: काल: चैत्र: / वैशाखः / एवं ज्येष्ठः / आषाढः / श्रावणः / भाद्रपदः / आश्वयुज: / कार्तिकः / मार्गशिरः / माघ: / फाल्गुन: / एवं सर्वत्र / समूहात् / युवतीनां समूहो यौवतं / एवं हासं / काकं / क्षात्र / शौद्र / आर्ष / मार्ग / सास्य देवता / जिनो देवता अस्य इति जैन: / एवं शैवः / वैष्णवः / ब्राह्मण: / बौद्ध: / कापिल: / सौरः / . ऐन्द्रः / तद्वेत्ति / जिनं वेत्तीति जैन इत्यादि / छन्दो वेत्त्यधीते वा छान्दस: / व्याकरणं वेत्त्यधीते वा वैयाकरण: / भारत: / तस्येदं / कुल शब्द से जात (जन्म) अर्थ में 'ईन' प्रत्यय होता है // 495 // अत: कुले जात: कुल में उत्पन्न हुआ 'कुलीन:' / यहाँ अकार का लोप हुआ है। इत्यादि। आगे अनेक अर्थों में अण् प्रत्यय होता है उसे श्लोक द्वारा प्रकट करते हैं। श्लोकार्थ-राग से, नक्षत्र के योग से, समूह अर्थ से, वह इसका देवता है इस अर्थ से, वह इसको जानता है पढ़ता है इस अर्थ से, यह उसका है इस अर्थ से, इस प्रकार आदि शब्द से और भी अर्थों से 'अण्' प्रत्यय माना गया है // 1 // राग-रंग अर्थ में अण् के उदाहरण कुसुंभेन रक्तं वस्त्रं, कुसुंभ+टा अण् विभक्ति का लोप होकर पूर्व स्वर को वृद्धि होकर कौसुंभ 'अ' का लोप होकर लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आने से 'कौसुंभं' बना, इसी प्रकार हरिद्रया रक्तं हारिद्रं, कुंकुमेन रक्तं-कौंकुम, मंजिष्ठेन रक्तं मांजिष्ठं, कषायेन रक्तं काषायं बना। नक्षत्र के योग में अण् प्रत्यय होने से- . . पुष्येण चन्द्रयुक्तेन युक्त: काल: ऐसा विग्रह हुआ है। पुष्य+टा अण विभक्ति का लोप होकर वृद्धि होकर पौष्य अ है। अण् प्रत्यय के आने पर नक्षत्र अर्थ में वर्तमान पुष्य तिष्य के यकार का लोप हो जाता है // 496 // "मत्स्यस्य यस्य स्त्रीकारे ईये चागस्त्यसूर्ययोः” यह सत्र अनवृत्ति मे चला आ रहा है। पौष्य के यकार का लोप होकर अण् का अकार मिल गया और लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आकर 'पौष:' बना / स्त्रीलिंग में पौषी और नपुंसकलिंग में पौषं बनेगा। जैसे पौषः कालः, पौषी रात्रिः पौषम् अहः / इसी प्रकार से तिष्य को तैष: बन गया। तीनों लिंगों में ये रूप चलते हैं।