________________ 172 कातन्त्ररूपमाला एयेऽकवादिस्तु लुप्यते // 488 // एये प्रत्यये परे उवों लुप्यते नतु कद्रूशब्दस्य / भाद्रबाहेय: / कामण्डलेयः / अकवा इति किम् / काद्रवेयः। सर्वनाम्नः संज्ञाविषये स्त्रियां विहितत्वात्॥४८९॥ . सर्वनाम्न: पर: संज्ञाविषये एयण् भवति अपत्येऽभिधेये। सर्वा काचित् स्त्री। सर्वाया अपत्यं सार्वेयः / इत्यादि। इणतः॥४९०॥ अकारान्तानाम्न इण प्रत्ययो भवति अपत्येऽभिधेये। दक्षस्यापत्यं दाक्षिः। एवं दाशरथिः / आधुनिः / दैवदत्ति: / अस्यापत्यं इ: इत्यादि / कद्रू को छोड़कर उकारांत शब्द से एयण् प्रत्यय के आने पर उ वर्ण का लोप हो जाता है // 488 // अत: भाद्रबाह एय लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आकर भाद्रबाहेय; बना ऐसे कमंडलोरपत्यं-कामण्डलेयः / ___ कद्रू को छोड़कर ऐसा क्यों कहा ? कद्रू के ऊको “उवर्णस्त्वोत्वमापाद्यः” सूत्र से ओ होकर एयण् प्रत्यय से काद्रवेय: बना। सर्वा नाम की कोई स्त्री है अत: सर्वाया: अपत्यं है। सर्वनाम से परे संज्ञा अर्थ में अपत्य वाचक एयण प्रत्यय होता है // 489 // सर्वा+ ङस् एयण विभक्ति का लोप होकर ‘वृद्धिरादौ सणे' सूत्र से वृद्धि होकर “इवर्णावर्णयोलोप:” से 'आ' का लोप होकर साय बना लिंग संज्ञा होकर विभक्ति के आने से सार्वेय: बना। इत्यादि। दक्षस्यापत्यं है अकारांत शब्द से अपत्य अर्थ में इण प्रत्यय होता है // 490 // अत: दक्ष+ ङस् विभक्ति का लोप होकर, वृद्धि होकर अवर्ण का लोप होकर लिंग संज्ञा हुई और विभक्ति आकर दाक्षि: बना। इसी प्रकार से दशरथस्यापत्यं-दाशरथि: अर्जुनस्यापत्यं आर्जुनि: देवदत्तस्यापत्यं दैवदत्तिः। ___ 'अ' के एकाक्षरी कोश में अनेक अर्थ होते हैं 'अ' के अरहंत, विष्णु आदि 'अ' का रूप पुरुषवत् चलते हैं। जैसे-अः औ आः आभ्याम् एभ्यः अम् औ आन् अस्य अयोः आनाम् एन आभ्याम् ऐः ए अयोः एषु / आय आभ्याम् एभ्यः अतः अस्य अपत्यं है। 'इणत:' 490 से इण् प्रत्यय हुआ। ‘वृद्धिरादौ सणे' से अ को वृद्धि होकर 'आ' हुआ। 'इवर्णावर्णयो' सूत्र से आ का लोप होकर 'इ' रहा लिंगसंज्ञा होकर सि विभक्ति आई 'इ' को अग्निसंज्ञा होकर मुनिवत् रूप चलेंगे। 'इ:' बना। इत्यादि / उपबाहोरपत्यं, भद्रबाहोरपत्यं हैं। आत्