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________________ तद्धितं नहिवृतिवृषिरुचिसहितनिरुहिषु क्विबन्तेषु प्रादिकारकाणाम् / / 471 // प्रादीनां कारकाणामेषु क्विबन्तेषु दीर्घता भवति नह्यादिषु धातुषु परत: / उपानत् / उपावृत् / प्रावृट् / कर्मावित् / नीरुक् / प्रतीषट् / परीतत् / वीरुत् / इत्यादि। अनव्ययविसृष्टस्तु सकारं कपवर्गयोः // 472 / / अनव्ययविसृष्टस्तु सकारमापद्यते कपवर्गयो: परत:। अयस्कारः अयस्कल्पः। अयस्पाश: / अयस्काम्यति / अयस्काम इत्यादि / कारकल्पपाशकाम्यकेषु सकारो दृश्यते / बहुव्रीहव्ययीभावौ द्वन्द्वतत्पुरुषौ द्विगुः / कर्मधारय इत्येते समासा: षट् प्रकीर्तिताः // 1 // वर्धमानकुमारेणार्हता पूज्येन वज्रिणा। कौमारे ऋषभेणापि कुमाराणां हितैषिणां // 1 // मुष्टिव्याकरणं नाम्ना कातन्त्र वा कुमारकं। कालापकं प्रकाशात्मब्रह्मणामभिधायकं / / 2 / / प्रकाशितं शीघ्रबोधसंपदे श्रेयसां पदं / समासानां प्रकरणं भावसेन इहाभ्यधात् // 3 // इति समासाः। अथ तद्धितं किंचिदच्यते कपटोरपत्यं / भृगोरपत्यं / विदेहस्यापत्यं / उपगोरपत्यं / इति स्थिते नहि वृति आदि क्विबन्त वाले धातुओं के आने पर प्र आदि पूर्वपद के स्वर को दीर्घ होता है // 471 // उप आदि उपसर्ग से परे नहि, वृति, वृषि, व्यधि, रुचि, सहि, तनि, रुहि धातुओं से क्विप् प्रत्यय हुआ है पुन: क्विप् प्रत्यय का सर्वापहारी लोप होकर रूप बन गया है उसमें पूर्व पद को दीर्घ करने के लिये यह सूत्र लगा है। जैसे उप नह दीर्घ होकर 'उपानह' बना लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर 'उपानत्' बना। वैसे ही सर्वत्र दीर्घ हुआ है। उपवृत्-उपावृत् प्रवृष-प्रावृट् / कर्माणि विध्यति इति कर्मव्यध् संप्रसारण होकर अर्थात् य को इ होकर कर्मवित् दीर्घ होकर 'कर्मावित्' बना। निरुच-नीरुक् प्रति सह-प्रतीषट्परीतन्-परीतत् विरुह-वीरुत् बना। कवर्ग पवर्ग के आने पर अव्यय से रहित विसर्ग सकार हो जाता है // 472 // जैसे अय: कार-अयस्कारः, अय: कल्प-अयस्कल्पः, अयस्पाश: अयस्काम्यति अयस्काम: इत्यादि / कार, कल्प, पाश और काम्यक में सकार दिख रहा है। श्लोकार्थ-बहुब्रीहि, अव्ययीभाव, द्वंद्व, तत्पुरुष, द्विगु और कर्मधारय इस प्रकार से ये छह समास कहे गये है // 1 // इस प्रकार से समास का प्रकरण समाप्त हुआ। . अब किंचित् तद्धित का वर्णन किया जाता है। कपटो: अपत्य-कपटु का लड़का, भृगो अपत्यं विदेहस्य अपत्य उपगो. अपत्यं / ऐसा विग्रह * हुआ है।
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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