________________ 166 कातन्त्ररूपमाला ईषदर्थे वर्तमानस्य कुशब्दस्य कवादेशो भवति तत्पुरुषे चोष्णशब्दे परे। चकारोऽत्र विकल्पार्थः / कु ईषच्च तत् उष्णं च कवोष्णं / पक्षे कोष्णं / कदुष्णं / __ पथि च // 467 // तत्पुरुषसमासे कुशब्दस्य कादेशो भवति पथिन्शब्दे च परे। कुत्सितश्चासौ पन्थाश्च कापथः / समासान्तर्गतेत्यादिना अत्प्रत्ययः। नस्तु क्वचिनलोप:। इवर्णावर्णयोर्लोप: स्वरे प्रत्यये ये च। इति इकारलोपः। पुरुषे तु विभाषया // 468 कुशब्दस्य कादेशो भवति वा तत्पुरुषे पुरुषशब्दे परे / कत्सितश्चासौ पुरुषश्च कापुरुषः / कुपुरुषः / ___ याकारौ स्वीकृतौ ह्रस्वौ क्वचित् // 469 // ईकारश्च आकारश्च याकारौ। याकारी स्त्रीकतौ हस्वौ भवतः समासे क्वचिल्लक्ष्यानरोधात / रेवत्या मित्रं रेवतिमित्रं / एवं रोहिणिमित्रं / इष्टकाना चितं इष्टकचितं / इषीकाणां तूलं इषीकतूलं / इत्यादि / ह्रस्वस्य दीर्घता // 470 // ह्रस्वस्य दीर्घता भवति समासे क्वचिल्लक्ष्यानुरोधात् / दात्राकारौ कर्णौ यस्यासौ दात्राकर्णः / द्विगुणाकर्णः। ईषत् अर्थ में वर्तमान कु शब्द को 'का' आदेश हो जाता है तत्पुरुष समास में उष्ण शब्द के आने पर / यहाँ सूत्र में चकार शब्द विकल्प के लिये हैं। कु ईषच्च तदुष्णं च कव+ उष्णं = कवोष्णं / द्वितीय पक्ष में-कु को 'का' होकर 'कोष्णं' बना। पथि शब्द के आने पर भी 'का' आदेश हो जाता है // 467 // तत्पुरुष समास में 'कु' शब्द को 'का' आदेश हो जाता है। कुत्सितश्चासौ पन्थाश्च—कापथ: 'समासांतर्गतानां वा' इत्यादि सूत्र से पथिको अप्रत्यय हो गया एवं 'नस्तुक्वचित्' सूत्र से नकार का लोप 'इवर्णावर्णयोलोप:' इत्यादि सूत्र से इकार का लोप, लिंगसंज्ञा, सि विभक्ति आकर ‘कापथ:' बना। पुरुष शब्द के परे ‘का' आदेश विकल्प से होता है // 468 // कुत्सितश्चासौ पुरुषश्च कापुरुषः, कुपुरुष: बना। स्त्रीलिंग के ईकार और आकार क्वचित् ह्रस्व हो जाते हैं // 469 // सूत्र से ‘याकारौ' शब्द है वह ईकाराश्च आकारश्च ई को य् होकर याकारौ बना है। समास में कहीं पर लक्ष्य के अनुरोध से ईकार, आकार ह्रस्व हो जाते हैं। जैसे-रेवत्या: मित्रं, रेवती + ङस् मित्र सि विभक्ति का लोप होकर ह्रस्व होकर रेवतिमित्र लिग सज्ञा होकर विभक्ति आकर 'रेवतिमित्र' बना। वैसे ही रोहिण्या: मित्रं-रोहिणिमित्रं / इष्टकानां चितं इष्टकचितं, इषीकाणां तूलं इषीकतूलं / इत्यादि। दात्राकारौ कर्णौ यस्य असौ-बहुव्रीहि समास मेंविभक्ति का लोप होकर ‘दात्रकर्ण' रहा। समास में कहीं पर ह्रस्व को दीर्घता हो जाती है // 470 // लक्ष्य के अनुरोध से कहीं पर ह्रस्व को दीर्घ हो जाता है अत: ‘दात्राकर्ण' लिंग संज्ञा, विभक्ति आकर ‘दात्राकर्ण:' बना / ऐसे ही द्विगुणाकारौ कौँ यस्यासौ-द्विगुणाकर्णः /