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________________ 164 कातन्त्ररूपमाला स्त्रियां वर्तमाने तुल्याधिकरणे पदे पूरण्यादिगणवर्जित उत्तरपदे परे / दत्ता भार्या यस्यासौ दत्ताभार्यः / पञ्चमीभार्य: / पाचिकाभार्य: / गोरप्रधानस्येत्यादिना ह्रस्व: / इत्यादि / कर्मधारयसंज्ञे तु वद्भावो विधीयते // 460 // स्त्रियां वर्तमाना भाषितपुंस्का अनूङन्ता: संज्ञापूरणीप्रत्ययान्ता: कोपधा अपि कर्मधारयसमासे तु पुंवद्भवन्ति स्त्रियां वर्तमाने तुल्याधिकरणे पूरण्यादिगणवर्जित उत्तरपदे परे। शोभना चासौ भार्या च शोभनभार्या। एवं दत्तभार्या। पाचकभार्या। पञ्चमभार्या इत्यादि। भाषितपुंस्कमिति किं ? खट्वावृन्दारिका। अनूङिति किं ? ब्रह्मवधूदारिका। आकारो महतः कार्यस्तुल्याधिकरणे पदे // 461 // महत आकार: कार्यस्तुल्याधिकरणे पदे परे / महांश्चासौ वीरश्च महावीरः / अन्तरङ्गत्वात् व्यञ्जनान्तस्य यत्सुभोरिति न्यायादनुषगलोप: / प्रथमतोऽनुषङ्गस्य लोपे कृते सति पश्चात् येन विधिस्तदन्तस्येति न्यायात् तकारस्याकारः / सर्वत्र सवणे दीर्घः / एवं महापुरुष: / महापर्वत: / महादेशः / नस्य तत्पुरुषे लोपः॥४६२॥ पाचिकाभार्या यस्यासौ पाचिकाभार्यः / इनमें “गोरप्रधानस्य” इत्यादि सूत्र से अन्त को ह्रस्व हुआ है। इस प्रकार से इनमें बहुव्रीहिसमास में पूर्व को ह्रस्व नहीं हुआ अन्त को ह्रस्व हुआ है। किन्तु आगे कर्मधारय समास में पूर्व को ह्रस्व होगा तथा अन्त को ह्रस्व नहीं होगा। सो ही दिखाते हैं। ... कर्मधारय समास में पुंवद् भाव हो जाता है // 460 // स्त्रीलिंग में वर्तमान तुल्याधिकरण में पूरणी आदि गण वर्जित उत्तर पद में होने पर स्त्रीलिंग में / वर्तमान भाषितपुंस्क, ऊकारांत रहित संज्ञा पूरणी प्रत्ययांत वाले 'क' की उपधा सहित भी कर्मधारय समास में पुंवद् हो जाते हैं। शोभना चासौ भार्या च–शोभन-भार्या / दत्ता चासौ भार्या च-दत्तभार्या, पाचिका चासौ भार्या च-पाचकभार्या, पंचमी चासौ भार्या च-पंचमभार्या / पाचिका और पंचमी में पुंवद् भाव होने से स्त्री प्रत्यय के निमित्त से हुआ इकार और दीर्घ 'ई' प्रत्यय का लोप हो गया है। इत्यादि / भाषित पुंस्क ऐसा क्यों कहा ? जैसे-खट्वा चासौ वृन्दारिका च खट्वा वृन्दारिका, इसमें 'खट्वा' भाषित पुंस्क नहीं है सतत स्त्रीलिंग ही है। ऊकारांत न हो ऐसा क्यों कहा? ब्रह्म-वधू चासौ दारिका च–ब्रह्मवधू दारिका, इसमें ऊकारांत होने से ह्रस्व नहीं हुआ। महांश्चासौ देवश्च, ऐसा विग्रह हुआ, महन्त + सि, देव + सि विभक्ति का लोप होकर तुल्याधिकरण पद के आने पर महत् के अंत को आकार होता है // 461 // यहाँ अन्तरंग विधि होने से “व्यञ्जनान्तस्य यत्सुभोः” ४३०वें सूत्र से अनुषंग का लोप हुआ। पहले अनुषंग का लोप करने पर पश्चात् जिससे विधि होती है वह उसके अंत की होती है इस न्याय से तकार को आकार हुआ है। अत: मह आ देव सर्वत्र सवर्ण को दीर्घ हो जाता है / 'महादेव' रहा। लिंग 'महादेवः' बना, इसी प्रकार से महांश्चासौ पुरुषश्च महापुरुषः, महांश्चासौ पर्वतश्च-महापर्वतः, महादेश: इत्यादि। तत्पुरुष के अंतर्गत न समास का कथन है न सवर्णः, न ब्राह्मण: है नञ् संज्ञक तत्पुरुष समास में नकार का लोप हो जाता है // 462 // .
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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