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________________ समास: 153 गोरप्रधानस्यान्तस्य स्त्रियामादादीनां च // 426 / / अप्रधानस्यान्तरस्य गोशब्दस्य तथाविधस्त्रियामादादीनां ह्रस्वो भवति / इति ह्रस्व: / अवकोकिलं वनं / अवमयूरं / अध्ययनाय परिग्लान इति विग्रहः / पर्यादयो ग्लानाद्यर्थे चतुर्थ्या // 427 // पर्यादय: शब्दा ग्लानाद्यर्थे चतुर्थ्या सह यत्र समस्यन्ते स समासस्तत्पुरुषसंज्ञो भवति / पर्यध्ययन: / कौशाम्ब्या निर्गतः। मथुराया निर्गत इति विग्रहे निरादयो निर्गमनाद्यर्थे पञ्चम्या // 428 // निरादय: शब्दा निर्गमनाद्यर्थे पञ्चम्या सह यत्र समस्यन्ते स समासस्तत्पुरुषसंज्ञो भवति / गोरप्रधानस्यान्तस्य इत्यादिना ह्रस्व: / निष्कौशाम्बि: / एवं निर्मयूरः / / दीर्घश्चारायणः / व्यास: पाराशर्यः / रामो जामदग्न्यः / क्षेमंकरः। शभंकरः। प्रियंकरः। श्रियंमन्यः। भवंमन्यः। अम्भसाकृतं / तमसाकतं / परस्मैपदं। आत्मनेपदं / स्तोकान्मुक्त: / कृच्छान्मुक्त: / अन्त्यकादागतः। दूरादागतः / वाचोयुक्तिः / दिशोदण्डः / पश्यतोहरः। शुन:पुच्छः। शुन:शेफ: / शुनोलाङ्ग्ल:। सरसिजं। पड़े। स्तंबेरमः / कर्णेजप: / कण्ठेकालः / उरसिलोमा। इत्यत्र समासे कृते विभक्तिलोपे प्राप्ते 'तत्स्था लोप्या विभक्तयः' इत्यत्र स्थग्रहणाधिक्याल्लोपो न भवति / अवकोकिला रहा। ‘स्वरो ह्रस्वो नपुंसके' इस प्रकार से यहाँ योग चला आ रहा है। अप्रधान है अन्त में गो शब्द जिनके ऐसे और स्त्रीलिंगवाची आकारादि जो शब्द हैं वे ह्रस्व हो जाते हैं // 426 // इस सूत्र से ह्रस्व होकर 'अवकोकिल' रहा पुन: सि विभक्ति आकर नपुंसक लिंग के 'वन' का विशेषण होने से नपुंसक लिंग में 'अवकोकिलं' बना। . अवकोकिलं वनं—कोकिला (कोयलों) से व्याप्त वन / ऐसे ही मयूरेण अवक्रुष्टं वनं–'अवमयूरं' बना। अध्ययनाय परिग्लान: इस प्रकार से विग्रह है। परि आदि शब्दों का ग्लान आदि अर्थ में चतुर्थ्यन्त के साथ समास होता है // 427 / / ___ वह समास तत्पुरुष संज्ञक है। अध्ययन + ङे परिग्लान + सि, ४२१वें सूत्र से विभक्ति का लोप होकर ग्लान का प्रयोग हटाकर अव्यय का पूर्व में निपात हुआ अत: 'पर्यध्ययन' रहा लिंग संज्ञा होकर विभक्ति आकर 'पर्यध्ययन:' बना। कौशाम्ब्या: निर्गत:, मथुराया: निर्गतः, इस प्रकार से विग्रह है। निरादि शब्दों का निर्गमन आदि में पंचम्यन्त के साथ समास होता है // 428 // और वह समास तत्पुरुष संज्ञक है। कौशाम्बी + ङसि निर्गत् + सि, विभक्ति का लोप, निर् का पूर्व में निपात होकर ४२६वें सूत्र से ह्रस्व होकर लिंग संज्ञा होकर नपुंसक लिंग में 'सि' विभक्ति आई। इनका समास करने पर विभक्तियों का लोप प्राप्त था, किन्तु “तत्स्था लोप्या विभक्तयः" सूत्र में 'स्थ' ग्रहण की अधिकता होने से कहीं पर लोप नहीं होता है। इस नियम से ऊपर में विभक्तियों का लोप नहीं होने से 'आत्मनेपदं' परस्मैपद आदि रूप जैसे के तैसे रह गये हैं।
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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