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________________ 154 कातन्त्ररूपमाला सप्तम्यास्तत्पुरुषे कृति बहुलम् // 429 // कृदन्ते परे सप्तम्यास्तत्पुरुषे कृति समासे बहुलमलुग्भवति / गेहेनर्दी / गेहेक्ष्वेडा। प्रवाहेमूत्रितं / भस्मनिहतं / क्वचिद्विकल्प: / खेचर; खचरः। वनेचरः, वनचरः। पढेरुहं, पङ्करुहं / सरसिजं, सरोजं / इत्यादि // विदुषां गमनं / दिवं गतः / इत्यादौ समासे कृते व्यञ्जनान्तस्य यत्सुभोः // 430 // लुप्तासु विभक्तिषु व्यञ्जनान्तस्य सुभोर्यदुक्तं तद्भवति / विद्वद्गमनं / धुगतः / इत्यादि / नीलं च तदुत्पलं च / रक्तं च तदत्पलं च / च शब्द: समुच्चयद्योतनार्थः / तच्छब्द एकाधिकरणद्योतनार्थः। निष्कौशाम्बि+सि = निष्कौशाम्बि, निर्मयूरः / दीर्घश्चारायण, व्यास: पाराशर्य, रामो जामदग्न्यः, क्षेमंकर:, शुभंकर: एकाधिकरणद्योतनार्थ: / पदे तुल्याधिकरणे विज्ञेयः कर्मधारयः॥४३१॥ यस्मिन् समासे द्वे पदे तुल्याधिकरणे भवत: स कर्मधारयो भवति / भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तयोः शब्दयोरेकाधिकरणे समावेशस्तुल्याधिकरणं। उक्तार्थानामप्रयोग इति तत्-च-शब्दनिवृत्तिः। . सप्तमी से तत्पुरुष समास में कृदन्त से समास करने पर बहुधा करके लुक् नहीं होता है // 429 // तब गेहे, नी, गेहेनर्दी प्रवाहे मूत्रितं-भस्मनि हुतं / इत्यादि / कहीं पर विकल्प हो जाता है / खेचर: खचर:, वनेचर: वनचरः, पंकेरुहं पंकरुहं, सरसिजं सरोजं आदि / विदुषां गमनं, दिवं गत: इत्यादि में समास के करने पर विद्वन्स् + आम्, गमन + सि। दिव+ अम्, गत+सि है। विभक्ति का लोप होकर सूत्र लगा विभक्तियों के लोप हो जाने पर व्यञ्जनान्त सुभ्याम् विभक्तियों में जो कार्य कहा है वही हो जाता है // 430 // न् का लोप एवं स् का 'द्' होकर 'विद्वद्गमन' सि विभक्ति आकर 'विद्वद्गमनं' बना। उसी प्रकार “अघुट्स्वरादौ” आदि ३१९वें सूत्र से व् को 'उ' होकर धुगत विभक्ति आकर 'धुगत:' बना। इत्यादि अब कर्मधारय समास को कहते हैं। नीलं च तदुत्पलं च, रक्तं च तदुत्पलं च / यहाँ चकार शब्द समुच्चय को प्रकट करने के लिये दिया जाता है। और 'तद्' शब्द एकाधिकरण को प्रकट करने के लिये है अर्थात् नील शब्द भी नपुंसकलिंग है अत: तद् शब्द भी नपुंसकलिंग का एकवचन है। इसी तरह कर्मधारय समास में स्त्रीलिंग में सा अथवा असौ, पुल्लिंग में असौ शब्द का प्रयोग होता है एवं एकवचन में एकवचन द्विवचन के साथ ‘तौ' बहुवचन के साथ 'ते' शब्द का प्रयोग होता है क्योंकि विशेष्य विशेषण का समास है अत: लिंगों में, वचनों में समानता का नियम है। उसी को आगे स्पष्ट करेंगे। जिस समास में दो पद तुल्य अधिकरण वाले होवें वह समास 'कर्मधारय' संज्ञक है॥४३१॥ तुल्याधिकरण किसे कहते हैं ? भिन्न प्रवृत्ति में निमित्तभूत दो शब्दों का एक आधार में समावेश होना तुल्याधिकरण कहलाता है। यहाँ पर भी “उक्तार्थानामप्रयोग:" इस नियम से चकार और तद् शब्दों १.सप्तम्यन्त का कृदन्त के साथ तत्पुरुष समास करने पर सप्तमी विभक्ति का लोप नहीं होता है॥४३५ //
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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