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________________ 152 कातन्त्ररूपमाला अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयया // 424 // अत्यादय: शब्दा: क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयया सह यत्र समस्यन्ते स समासस्तत्पुरुषसंज्ञो भवति / उक्तार्थानामप्रयोगः / अव्ययानां पूर्वनिपात: / अतिविश्व: / कोकिलया अवक्रुष्टं वनमिति विग्रहः / अवादयः ऋष्टाद्यर्थे तृतीयया // 425 // अवादय: शब्दा: क्रुष्टाद्यर्थे तृतीयया सह यत्र समस्यन्ते स समासस्तत्पुरुषसंज्ञको भवति / स्वरो ह्रस्वो नपुंसके इत्यत्र योगविभागात् तृतीया में-दना संसृष्टः है, दधि टा, संसृष्ट सि, “तत्स्था लोप्या विभक्तयः” सूत्र से विभक्ति का लोप, “कृत्तद्धितसमासाश्च" सूत्र से लिंग संज्ञा होकर पुन: दधिसंसृष्ट + सि है विसर्ग होकर 'दधिसंसृष्टः' बना / ऐसे ही धान्येन अर्थ:-धान्यार्थ; यलेन कृतं-यत्नकृतं / चतुर्थी में-कुबेराय बलि:, कुबेर + डे, बलि+सि, विभक्ति का लोप होकर लिंग संज्ञा होकर कुबेरबलि + सि है। विसर्ग होकर 'कुबेरबलि:' बना। उसी प्रकार से यूपाय दारु-यूपदारु देवाय. . सुखं–देवसुखं। . पंचमी में-चौराद् भयं, चौर + ङसि, भय+सि है विभक्ति का लोप लिंग संज्ञा पुन: सि विभक्ति आकर 'चौरभयं' बना। उसी प्रकार से ग्रामानिर्गत:-ग्रामनिर्गत: बना। षष्ठी में चन्दन + ङस् गंध+सि, विभक्ति का लोप, लिंग संज्ञा होकर सिविभक्ति आकर 'चन्दनगंध:' बना। तथैव राज्ञः पुरुष: राजपुरुष:, फलानां रस:-फलरस: / सप्तमी में व्यवहार+ङि कशल+सि विभक्ति का लोप लिंग संज्ञा होकर सिविभक्ति आकर 'व्यवहारकुशल:' बना / तथैव-कांपिल्ये सिद्धः-कांपिल्यसिद्धः, धर्मे नियत: धर्मनियत: मोक्षे सुखं-मोक्षसुखं, संसारे सुखं-संसारसुखं, आदि प्रगत: आचार्य: अभिगतो मुखं, प्रतिगतो अक्षं है। प्रादि उपसर्गों का गतादि अर्थ में प्रथमान्त के साथ समास होता है। प्रादि शब्दों का गतादि अर्थ में प्रथमान्त विभक्ति के साथ जहाँ समास होता है वह समास 'तत्पुरुष संज्ञक' है। प्रगत + सि आचार्य + सि ४२१वें सूत्र से विभक्ति का लोप होकर 'उक्तार्थानां अप्रयोगः / इस नियम से 'गत' शब्द अप्रयोगी हो गया पुन: लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर 'प्राचार्य:' बना। वैसे ही अभिगत: मुखं-अभिमुखं / प्रतिगतो अक्षं-प्रत्यक्षं बना है। . विश्वम् अतिक्रान्त:, यह विग्रह है। अति आदि शब्दों का क्रांत आदि अर्थ में द्वितीयां के साथ समास होता है // 424 // अति आदि शब्दों का क्रान्त आदि अर्थ में जो समास होता है वह समास तत्पुरुष संज्ञक है। विश्व+ अम् अतिक्रान्त+सि, विभक्तियों का लोप होकर 'उक्तार्थानामप्रयोगः' नियम से क्रांत का अप्रयोग होकर 'अव्ययानां पूर्वनिपात:' नियम से अति अव्यय का पूर्व में निपात होकर अतिविश्व रहा, पुन: लिंग संज्ञा होकर सि विभक्ति आकर ‘अतिविश्व:' बना। कोकिलया अवक्रुष्टं वनं यह विग्रह है। अवादि शब्दों का क्रुष्ट आदि अर्थ में तृतीयान्त के साथ समास होता है // 425 // वह समास तत्पुरुष संज्ञक है। कोकिला +टा अवक्रुष्ट + सि ४२१वें सूत्र से विभक्ति का लोप, अव्यय का पूर्व में निपात एवं लिंग संज्ञा होकर।
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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