________________ 140 कातन्त्ररूपमाला लक्षणार्थे वीप्सार्थे इत्थंभूतार्थे अभिशब्द: कर्मप्रवचनीयो भवति / भागे च परिप्रती कर्मप्रवचनीयौ भवत: / चशब्दात् लक्षणार्थे वीप्साङ्के इत्थंभूतार्थे परिप्रती कर्मप्रवचनीयौ भवत: / अनुशब्द एषु पूर्वोक्तेषु अर्थेषु कर्मप्रवचनीयो भवति / सहार्थे च / चशब्दः समुच्चयार्थ: / हीनार्थे उपशब्द: कर्मप्रवचनीयो भवति / / चशब्दाद् हीनार्थे अनुशब्द: कर्मप्रवचनीयो भवति / लक्षणार्थे वृक्षमभि विद्योतते विद्युत् / वीप्सार्थे वृक्षं वृक्षमभि तिष्ठति विद्युत् / इत्थंभूतार्थे साधुदेवदत्तो मातरमभि / वृक्षं परि विद्योतते विद्युत् / वृक्षं प्रति तिष्ठति / वृक्षं वृक्षं प्रति तिष्ठति / साधु देवदत्तो मातरं परि / साधु देवदत्तो मातरं प्रति / यदत्र मा परि स्यात् / तदत्र मां प्रति स्यात् / वृक्षमनु विद्योतते विद्युत् / वृक्षं वृक्षमनुतिष्ठति / साधु देवदत्तो मातरमनु / यदत्र मामनु स्यात् / पर्वतमनु वसते सेना। अन्वर्जुनं योद्धारः। उपार्जुनादन्ये योद्धारो निकृष्टा इत्यर्थः / / गत्यर्थकर्मणि द्वितीयाचतुौँ चेष्टायामनध्वनि // 386 // चेष्टाक्रियाणां गत्यर्थानां धातूनां प्रयोगेऽध्वनि वर्जिते कर्मणि द्वितीयाचतुर्थ्यो भवत: / ग्रामं गच्छति / ग्रामाय गच्छति / नगरं व्रजति / नगराय व्रजति / इत्यादि। चेष्टायामिति किं ? मनसा मेरुं गच्छति। मनसा स्वर्गं गच्छति / अनध्वनीति किं ? अध्वानं गच्छति / गत्यर्थानामिति किं ? पन्थानं पृच्छति। लक्षण अर्थ में वृक्षमभि विद्योतते विद्युत–वृक्ष के चारों तरफ बिजली चमकती है। वीप्सा अर्थ में वृक्षं वृक्षमभि तिष्ठति विद्यत्-वृक्षवृक्ष पर बिजली ठहरती है। इत्थंभत अर्थ में साधदेवदत्तो मातरभि माता के विषय में देवदत्त साध है। वृक्षं परि विद्योतते विद्युत्-वृक्ष के चारों तरफ बिजली चमकती है। वृक्षं प्रति विद्युत् तिष्ठति-वृक्ष के प्रति बिजली ठहरती है। वृक्षं वृक्षं प्रति तिष्ठति-वृक्ष वृक्ष पर ठहरती है। साधुदेवदत्तो मातरं परि-माता के प्रति देवदत्त साधु है। साधु देवदत्तो मातरं प्रति-माता के प्रति देवदत्त साधु है। यदत्र मां परिस्यात्-जो यहाँ मेरे हिस्से में होगा। तदत्र मां प्रति स्यात्-वो ही वहाँ मेरे हिस्से में होगा। देवदत्तो मातरमनु-देवदत्त माता के पीछे हैं। यदत्र मामनु स्यात्-जो वहाँ मेरे हिस्से में होगा। पर्वतमनु वसते सेना–पर्वत के पीछे सेना रहती है। अन्वर्जुनं योद्धार:-सभी योद्धा अर्जुन से हीन हैं। उपार्जुनं योद्धार:-सभी योद्धा अर्जुन से हीन हैं। सभी योद्धा अर्जुन से निकृष्ट हैं यहाँ यह अर्थ है। . चेष्टा क्रिया में गत्यर्थ धातु के प्रयोग में 'अध्व' छोड़कर कर्म में द्वितीया और चतुर्थी हो जाती है // 386 // जैसे-ग्रामं गच्छति, ग्रामाय गच्छति-गाँव को जाता है। चेष्टा क्रिया में हो ऐसा क्यों कहा ? मनसा मेरुं गच्छति-मन से मेरु पर जाता है। तो यहाँ चलने की क्रिया न होने से चतुर्थी नहीं हुई। कर्म में अध्व न हो ऐसा क्यों कहा ? तो अध्वानं गच्छति—मार्ग में जाता है। यहाँ अध्व शब्द का योग होने से चतुर्थी नहीं हुई। गत्यर्थ धातु हों ऐसा क्यों कहा ? पंथानं पृच्छति-मार्ग को पूछता है। यहाँ चतुर्थी नहीं हुई क्योंकि यहाँ गत्यर्थ धातु न होकर प्रश्नार्थ धातु है।