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________________ 126 कातन्त्ररूपमाला नपुंसकलिङ्गे स्यमि च परे इदम् शब्दस्य इदमादेशो भवति ! इदं / इमे। इमानि / इदं / इमे। इमानि / पुनरप्येवं / इत्यादि / यकारान्तोऽप्रसिद्धः / रकारान्तो नपुंसकलिङ्गो वार् शब्दः / वा: / वारी। वारि / पुनरप्येवं / इत्यादि / चत्वार् शब्दस्य तु भेदः / जश्शसो: शि: / चत्वारि / इत्यादि / लवशकारान्ता अप्रसिद्धा: / षकारान्तस्य षषशब्दस्य पूर्ववत् / सकारान्तो नपुंसकलिङ्गो यशस् शब्दः / यश: / यशसी। सान्तमहतोरित्यादिना दीर्घः / यशांसि / पुनरपि / यशसा / यशोभ्यां / यशोभिः / एवं वचस् ओजस् पयस् तपस् वयस् प्रभृतयः / इत्यादि / सर्पिस् शब्दस्य तु भेदः / सर्पि: / सर्पिषी / सीषि / पुनरप्येवं / सर्पिषा / इमे इमे अस्य पाधि / हे वाः वारि इदं + औ, इदं को 'त्यदादीनाम् विभक्तौ' सूत्र से 'इद' होकर 'द' को 'म' होकर औरीम् से औ को 'ई' होकर 'इमे' बना। इदं + जस् है / जस्, शस् को शि इदं को इम 'धुट्स्वराघुटि नुः' सूत्र से 'नु' का आगम 'घुटि चासंबुद्धौ' से दीर्घ होकर ‘इमानि' बना।। इमानि अस्मात् आभ्याम् एभ्यः इमानि अनयोः ..एषाम् अनेन आभ्याम् एभिः अस्मिन् अनयोः एषु / ' अस्मै आभ्याम् एभ्यः इत्यादि / यकारांत शब्द अप्रसिद्ध है। अब रकारांत वार शब्द है। वार् + सि, सि का लोप एवं स्कार को विसर्ग करके 'वा:' बना। वार् + औ। औ को 'ई' आदेश होकर 'वारी' बना। वार् + जस्, जस् को शि होकर 'वारि' बना। 'र: सुपि' से विसर्ग का निषेध होकर वार्ष बनता है। वार्-जल वाः वारी वारि / वारे वार्ध्याम वार्यः हे वारी हे वारि वारः वार्ध्याम् वार्यः वाः वारी वारः वारोः वाराम् वारा वार्ष्याम् वाभिः / वारि . वारोः वाएं चत्वार् शब्द में कुछ भेद है / चत्वार् + जस् / 'जस् शस्' को शि होकर ‘चत्वारि' बना। चतुर्णाम् भी बनता है। चत्वारि / चत्वारि / चतुर्भिः / चतुर्थ्य: / चतुर्थ्य: / चतुर्णाम्, चतुर्णाम् / चतुषु / लकारांत, वकारांत, शकारांत शब्द अप्रसिद्ध हैं / षकारान्त षष् शब्द पूर्ववत् है। . अब सकारांत नपुंसकलिंग 'यशस्' शब्द है। यशस् + सि 'सि' का लोप और 'स्' का विसर्ग होकर 'यशः' बना। यशस्+औ। औ को 'ई' होकर 'यशसी' बना। यशस्+जस् है / 'नु' का आगम होकर 'सान्तमहतो!पधाया:' सूत्र से दीर्घ होकर 'यशांसि' बना। यशः यशसी यशांसि | यशसे यशोभ्याम् . यशोभ्यः / हे यशः. हे यशसी हे यशांसि | यशसः यशोभ्याम् यशोभ्यः यशः यशसी यशसि यशसः यशसोः यशसाम् यशसा यशोभ्याम् यशोभिः यशसि यशसोः यशःसु, यशस्सु ऐसे ही वचस्, ओजस्, पयस्, तपस् और वयस् आदि के रूप चलते हैं। सर्पिस् शब्द है नामि से परे स् को ष् होकर सर्पिष् बना। सर्पिष् + सि = सर्पिः / सर्पिष् + जस् जस् को 'शि' नु का आगम और स्वर को दीर्घ होकर 'सपीषि' बना। सर्पिस् + भ्याम्
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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