________________ व्यञ्जनान्ता नपुंसकलिङ्गाः 125 अह्नः सः॥३४३॥ अहन्नित्येतस्य नकारस्य सो भवति विरामे व्यञ्जनादौ च / अहः / ईङ्योर्वा / अह्री, अहनी अहानि / हे अहः 3 / पुनरपि / अह्ना / अहोभ्यां / अहोभिः / अहःसु / इत्यादि / पफबभान्ता अप्रसिद्धाः / मकारान्तो नपुंसकलिङ्गः किम्शब्दः / किं / के / कानि / अन्यत्र पुल्लिङ्गवत् / इदं शब्दस्य तु भेदः / इदमियमयं पुंसि / इदं नपुंसकेऽपि च // 344 // चर्मसु चर्मन् शब्द के रूप में कुछ अंतर है। चर्मन् + सि नकार का लोप होकर 'चर्म' बना। चर्मन् + औ 'औ' को ई होकर न् को ण् होकर 'चर्मणी' बना। चर्मण 'घुटि चासंबुद्धौ' से दीर्घ होकर एवं जस् को शि होकर 'चर्माणि' बना। चर्म चर्मणी चर्माणि / चर्मणे चर्मभ्याम् चर्मभ्यः हे चर्म हे चर्मणी हे चर्माणि | चर्मणः चर्मभ्याम् चर्मभ्यः चर्म . चर्मणी चर्माणि | चर्मणः चर्मणोः चर्मणाम् चर्मणा चर्मभ्याम् चर्मभिः / चर्मणि चर्मणोः इसी प्रकार वर्मन्, कर्मन् और शर्मन् के रूप चलेंगे। अहन् शब्द में कुछ भेद हैं। अहन्+सि अहन् शब्द के नकार को विराम और व्यंजनादि विभक्ति के आने पर सकार हो जाता है // 343 // ___ एवं सि विभक्ति का लोप होकर 'अहः' बना। अहन् + औ 'ईयोर्वा' सूत्र से 'अह्नी अहनी' बना। अहन् + भ्याम् नकार को सकार होकर 'अहः + भ्याम्' पुन: संधि होकर 'अहोभ्याम्' बना / ___अहन्—दिन अहः . अह्री, अहनी अहानि / अढे अहोभ्याम् अहोभ्यः हे अहः हे अह्री, अहनी हे अहानि अहोभ्याम् अहोभ्यः अहः .. अही, अहनी अहानि अह्रोः अहाम् अहा अहोभ्याम् अहोभिः | अह्नि, अहनि अह्रोः / अह.सु, अहस्सु प, फ, ब और भांत शब्द अप्रसिद्ध हैं। अब 'मकारांत' किम् शब्द है / किम् + सि 'नपुंसकात्स्यमोर्लोपो न च तदुक्तं' सूत्र से 'किम्' बना। किम् + औ 'किं कः सूत्र से 'क' आदेश होकर औ 'को' 'ई' होकर 'के' हुआ। पुन: किम् + जस् है / किम् को 'क' जस् को 'शि' 'नु' का आगम और दीर्घ होकर ‘कानि' हुआ। किम् कस्मात् काभ्याम् कानि कस्य कयोः केन काभ्याम् कैः / कस्मै काभ्याम् केभ्यः इदं शब्द में कुछ भेद है / इदं+सि नपुंसकलिंग में 'सि अम्' विभक्ति के आने पर इदं शब्द को इदं आदेश ही होता है // 344 // अहः अहः के कानि केभ्यः किम् के केषाम् कस्मिन् कयोः केषु