________________ 123 व्यञ्जनान्ता नपुंसकलिङ्गाः अथ व्यञ्जनान्ता नपुंसकलिङ्गा उच्यन्ते कवर्गान्ता अप्रसिद्धाः / चकारान्तो नपुंसकलिङ्गः प्राञ्शब्दः / विरामे व्यञ्जनादावुक्तं नपुंसकात्स्यमोर्लोपेऽपि // 341 // विरामे व्यञ्जनादौ च यदुक्तं नपुंसकलिङ्गात्परयोः स्यमोलोपेपि तद्भवति। इति मत्वं अनुषगश्चाक्रुश्चेत्सर्वत्र / प्राक्, प्राग् / प्राची। प्राची। पुनरप्येवं / प्राचा। प्राग्भ्यां / प्राग्भिः / प्राक्षु / अन्यत्र पुल्लिङ्गवत् / एवं प्रत्यञ्च् सम्यञ्च् उदञ्च तिर्यञ्च् प्रभृतयः / छजझबटवर्गान्ता अप्रसिद्धाः। तकारान्तो नपुंसकलिङ्गः सकृत् शब्दः / सकृत्, सकृद् / सकृती। सकृन्ति / पुनरपि / इत्यादि / ददन्त् शब्दस्य तु भेदः / ददत्, ददद् / ददती। व्यञ्जनान्त नपुंसकलिंग प्रकरण अब व्यञ्जनान्त नपुंसकलिंग प्रकरण कहा जाता है। यहाँ नपुंसकलिंग में कवर्गान्त अप्रसिद्ध है चकारांत नपुंसक लिंग प्राञ्च् शब्द है। प्राञ्च् + सि . विराम और व्यञ्जनादि विभक्ति के आने पर जो कार्य कहा गया है वह कार्य नपुंसकलिंग से परे ‘सि अम्' के लोप होने पर भी हो जाता है // 341 // इस नियम से 'सि अम्' का लोप होकर “अनुषंगश्चाक्रुञ्चेत्” २६२वें सूत्र से अनुषंग संज्ञक नकार का लोप होकर 'चवर्गदृगादीनां च' सूत्र से 'च' को 'ग' होकर विकल्प से प्रथम अक्षर होकर 'प्राक प्राग' बना। ऐसे सर्वत्र अनुषंग का लोप करके व्यंजनादि में च को ग करके रूप बनेंगे। एवं नपंसकति के सारे नियम लगेंगे। यथा-प्राञ्च+औ 'ज्' का लोप, 'औरीम्' से 'औ' का 'ई' होकर 'प्राची' बना। ऐसे ही प्राच्+जस् है। “जश्शसो: शि:” २३९वें सूत्र से 'जस् शस्' को शि आदेश होकर "धुट्स्वराघुटि नुः” २४०वें सूत्र से 'नु' का आगम “घुटि चासंबुद्धौ” सूत्र से दीर्घ होकर 'प्राञ्चि' बना। आगे रूप सरल हैं। प्राक, प्राग् प्राची प्राञ्चि / प्राचे प्राग्भ्याम् प्राग्भ्यः हे प्राक्, प्राग हे प्राची हे प्राञ्चि प्राचः प्राग्भ्यः प्राक् प्राग् प्राची प्राञ्चि प्राचः प्राचोः प्राचाम् . प्राचा प्राग्भ्याम् .. प्राग्भिः / प्राचोः इसी प्रकार से प्रत्यञ्च, सम्यञ्च, उदञ्च, तिर्यञ्च् आदि के रूप चलेंगे। सम्यक, सम्यग् समीची सम्यञ्चि समीचे सम्यग्भ्याम् सम्यग्भ्यः हे सम्यक्, सम्यग् हे समीची हे सम्यञ्चि समीचः सम्यग्भ्याम् सम्यग्भ्यः सम्यक, सम्यग् समीची सम्यश्चि / समीचः समीचोः समीचाम् समीचा सम्यग्भ्याम् सम्यग्भिः / समीचि सम्यक्षु छ, ज, झ, ञ और टवर्ग नपुंसकलिंग में अप्रसिद्ध हैं। अब तकारांत नपुंसकलिंग ‘सकृत्' शब्द है। सकृत् + सि ‘वा विरामे' सूत्र से 'सकृद्' बनकर रूप चलेगा। सकृत, सकृद् सकृती सकृन्ति / सकृते सकृद्भ्याम् सकृद्भ्यः हे सकृत, सकृद् हे सकृती हे सकृन्ति सकृतः सकृद्भ्याम् सकृद्भ्यः सकृत्, सकृद् सकृती सकृन्ति सकृतः सकृतोः सकृताम् सकृता सकृद्भ्याम् सकृद्धिः / सकृति सकृतोः सकृत्सु प्राग्भ्याम् प्राचि प्राक्षु समीचोः