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________________ कातन्त्ररूपमाला तपस्विन् प्रभृतयः / वृत्रहन् शब्दस्य तु भेदः / वृत्रहा / वृत्रहणौ / वृत्रहण: / हे वृत्रहन् / वृत्रहणं / वृत्रहणौ / अघुट्स्वरे लोपे कृते / इन्हन् इत्यादिना दीर्घः / अस्मादेव हन उपधाया: सावेव दीर्घ: क्विपि न दीर्घः / हनेहेंर्घिरुपधालोपे॥२९३ // हनेरुपधाया लोपे कृते हे: स्थाने घिर्भवति / घत्वे नस्य णत्वाभाव: / वृत्रघ्नः / वृत्रघ्ना। वृत्रहभ्यां / वृत्रहभिः / इत्यादि / एवं ब्रह्महन् भ्रूणहन् ऋणहन् एते शब्दा: / पूषन् शब्दस्य तु भेदः / सौ दीर्घ: / पूषा / पूषणौ / पूषण: / हे पूषन् / पूषणं / पूषणौ।। . हृन्मासदोषपूषां शसादौ स्वरे वा // 294 // ह्रन् मास दोष पूषन् इत्येतेषां उपधाया उत्तरस्य लोपो वा भवति शसादौ स्वरे परे / पूषः, पूष्णः / पूषा, पूष्णा / पूषभ्यां / पूषभिः / इत्यादि / एवं अर्यमन् शब्दः / अर्वशब्दस्य तु भेद: / सौ-अर्वा / करी करिन्–हाथी करिणौ करिणः / करिणे करिभ्याम् करिभ्यः हे करिन ! हे करिणौ ! हे करिणः ! | करिणः करिभ्याम् करिभ्यः करिणम् करिणौ करिणः करिणः करिणोः करिणाम् / करिणा करिभ्याम् करिभिः / करिणि करिणोः . करिषु इसी प्रकार से दण्डिन्, हस्तिन्, गोमिन् और तपस्विन् के रूप चलते हैं। वृत्रहन् शब्द में कुछ भेद हैं। वृत्रहन्+शस् 'अघुट् स्वरे लोपम्' से स्वर का लोप प्राप्त था और ‘इन् हन् पूषन्' इत्यादि सूत्र से दीर्घ प्राप्त था। इसी सूत्र से ही हन् की उपधा को सि के आने पर ही दीर्घ होगा क्विप् प्रत्यय के आने पर दीर्घ नहीं होगा। हन् की उपधा का लोप करने पर ह के स्थान में घ का आदेश हो जाता है // 293 // ह को घ होने पर न् को ण् नहीं होता है। वृत्रहन् + अस् वृत्रहा . वृत्रहणौ वृत्रहणः / वृत्रघ्ने - वृत्रहभ्याम् वृत्रहभ्यः हे वृत्रहन् ! हे वृत्रहणौ ! हे वृत्रहणः ! | वृत्रघ्नः वृत्रहभ्याम् वृत्रहभ्यः वृत्रहणम् वृत्रहणौ वृत्रघ्नः वृत्रघ्नः वृत्रघ्नोः वृत्रघ्नाम् वृत्रघ्ना वृत्रहभ्याम् वृत्रहभः / वृत्रनि, वृत्रहणि वृत्रघ्नोः वृत्रहसु इसी प्रकार से ब्रह्महन्, भ्रूणहन्, ऋणहन् आदि शब्दों के रूप चलते हैं पूषन् शब्द में कुछ भेद है पूषन् + सि इत्यादि घुट विभक्ति में पूर्ववत् पूषा आदि रूप ही बनेंगे। पूषन् + शस्। शसादि स्वर वाली विभक्ति के आने पर हन् मास् दोष और पूषन् इनकी उपधा के उत्तर अक्षर का लोप विकल्प से हो जाता है // 294 // ___ जब उपधा के उत्तर नकार का लोप हुआ और 'अवमसंयोगा' इत्यादि सूत्र से अन् के अकार का लोप होकर पूष: बना। और नकार का लोप नहीं होने पर पूष्ण: बना।
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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