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________________ 83 व्यञ्जनान्ता: पुल्लिङ्गाः क्विप् सर्वापहारिलोपः। कृत्तद्धितसमासाश्चेति लिङ्गसंज्ञा। प्रथमैकवचनं सि। व्यञ्जनाच्चेति सेलोपः / मनोरनुस्वारे धुटि इति नकारस्यानुस्वारे प्राप्ते सर्वविधिभ्यो लोपविधिर्बलवानिति न्यायात् संयोगान्तस्य लोप इति नित्यं सकारलोप: / सुकन् / स्वरे परे मनोरनुस्वारो धुटि इति अनुस्वारः / महत्साहचर्याद्धातार्दीधों न स्यात् / सुकंसौ / सुकंस: / सुकंसं / सुकंसौ। सुकंस: / सुकंसा। सुकन्भ्यां / सुकन्भिः / इत्यादि / सम्बोधनेऽपि तद्वत्। नाञ्चः पूजायां // 25 // पूजार्थे वर्तमानस्य अञ्चेरनुषङ्गस्य लोपो न भवति अघुट्स्वरे व्यञ्जने च परे / प्राङ् / प्राञ्चौ / प्राचः / हे प्राङ। हे प्राञ्चौ। हे प्राञ्चः / प्राञ्चं / प्राञ्चौ। प्राञ्चः / प्राञ्चा। प्राभ्याम् / प्राभिः / इत्यादि / सुपि विशेषः / ङात्परस्य सस्य षो भवति। प्रार्छ / अञ्च गतिपूजनयोः / प्रपूर्वक: प्राञ्चतीति क्विप् सुकन्सौ सुकंसे सुकन्भ्यः .. २६२वें सूत्र में कहा कि इकार अनुबंध जिसमें हुआ है ऐसे शब्दों के अनुषंग का लोप नहीं होगा सो ऐसा क्यों कहा? सकन्स शब्द है यह कैसे बना सो देखिये / 'कसि' धात गमन और शास अर्थ में है इसमें इकार का अनुबंध लोप हुआ है अत: इकार अनुबंध धातु में कृदन्त में नु का आगम होता है सु उपसर्गपूर्वक अर्थात् अच्छी तरह से गमन या शासन करता है इस अर्थ में क्विप् प्रत्यय हुआ तो सु क नु स= सुकन्स् बना क्योंकि क्विप् प्रत्यय का सर्वापहारी लोप हो जाता है। पुन: 'कृत्तद्धितसमासाश्च' इस ४२३वें सत्र से लिंग संज्ञा होकर सि आदि विभक्तियाँ आ गईं। सुकन्स्+सि 'व्यंजनाच्च' इस सूत्र से सि का लोप 'मनोरनुस्वारोधुटि' इस २५८वें सूत्र से नकार को अनुस्वार प्राप्त था किन्तु सर्वविधि से लोप विधि बलवान् होती है इस नियम से 'संयोगांतस्य लोप:' इस १६३वें सूत्र से संयुक्त के अन्त सकार का लोप होकर 'सुकन्' बना / सुकन्स्+औ 'मनोरनुस्वारो धुटि' से न् को अनुस्वार होकर 'सुकंसौ' बना। यहाँ महत् के साहचर्य से धातु को दीर्घ नहीं हुआ। . सुकन्स् + भ्याम् 'संयोगांतस्य लोप:' से स् का लोप होकर सुकन्भ्याम् बना। सुकन् . सुकंसः / सुकन्भ्याम् सुकन्भ्यः हे सुकन् हे सुकन्सौ हे सुकंसः | सुकंसः सुकन्भ्याम् - सुकंसम् सुकन्सौ. सुकंसः सुकंसाम् सुकंसा सुकन्भ्याम् सुकन्भिः सुकंसोः सुकन्सु प्राच+सि पूजा अर्थ में वर्तमान अञ्च के अनुषंग का लोप नहीं होता है // 265 // अघट स्वर और व्यंजन वाली विभक्तियों के आने पर अञ्च के नकार का लोप नहीं होता है पजा अर्थ में विद्यमान रहने पर / अत: प्राञ्च् + शस्=प्राश्च: / प्राञ्च् + भ्याम् च को ग् ब् को अनुस्वार होकर डकार हुआ। संयुक्त के अंत का लोप होकर प्राभ्याम् / प्राञ्च+सु= प्राङ् सु 'डात्' २६४वें सूत्र से स् को ष् होकर प्रार्थ बन गया। प्राङ् प्राञ्चौ प्राश्चः प्राञ्चे प्राङ्भ्याम् प्राभ्यः हे प्राङ् ! हे प्राञ्चौ ! हे प्राञ्चः ! प्राश्चः प्राङ्भ्याम् प्राभ्यः प्राश्चम् प्राञ्चौ प्राञ्चः प्राश्चः प्राञ्चोः प्राचाम् प्राचा प्राङ्भ्याम् प्राभिः / प्राञ्चि प्राञ्चोः प्राथै [प्राक्षु अञ्चु धातु गति और पूजा अर्थ में है। सुकंसोः सुकंस: सुकंसि
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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