________________ 82 कातन्त्ररूपमाला धातुलिङ्गयोरन्त्याद्व्यञ्जनाद्य: पूर्वो नकार: सोऽनुषङ्गसंज्ञो भवति / अधुट् स्वरे लोपमित्यनुवर्तते / व्यञ्जने चैषां निरति च। . अनुषङ्गशाक्रुञ्चेत् // 262 // अक्रुञ्चेरिदनुबन्धवर्जितस्यानुषङ्गो लोपमापद्यते अघुट्स्वरे व्यञ्जने च परे / अञ्चेरलोपः पूर्वस्य च दीर्घः // 263 // अञ्चेरलोपो भवति पूर्वस्य च दीघों भवति अघुट् स्वरादौ। प्रतीच: / प्रतीचा। प्रत्यग्भ्यां / प्रत्यग्भिः / इत्यादि / एवं प्राञ्च सम्यञ्च प्रभृतयः / अक्रुञ्चेरिति किं ? क्रुङ् / क्रुश्चौ / क्रुञ्च: / क्रुञ्च / क्रुञ्चौ / क्रुञ्चः / क्रुञ्चा क्रुभ्यां / क्रुभिः / सप्तम्यां तु अत्॥२६४॥ - ङात्परस्य सस्य षो भवति / क्रुषु / इत्यादिः / इदनुबन्धवर्जितस्येति किं ? सुकन्स्शब्दः / कसि गतिशासनयोः / अत एव वर्जनादिदनबन्धानां धातूनां नरागमोऽस्तीति / सुपूर्वक: सुष्ठ कंस्ते क्विप् / इस सूत्र से प्रत्यञ्च के न् को अनुषंग संज्ञा हो गई। 'अघुट स्वरे लोपम्' एवं 'व्यंजने चैषां नि:' ये सूत्र अनुवृत्ति में चले आ रहे हैं। . क्रुञ्च और इकार अनुबंध वाले शब्दों को छोड़कर आगे अघुट् स्वर और व्यंजन के आने पर अनुषंग का लोप हो जाता है // 262 // अत: प्रति + अच्+ अस् रहा। अघुट् स्वर वाली विभक्तियों के आने पर अञ्च के 'अ' का लोप होकर पूर्व के स्वर को दीर्घ हो जाता है // 263 // तब प्रतीच+ अस्=प्रतीच: बना / प्रत्यञ्च + भ्याम् २५४वें सूत्र से च् को ग्। २६१वें सूत्र से न् को अनुषंग संज्ञा होकर २६२वें सूत्र से अनुषंग का लोप हुआ और प्रत्यग्भ्याम् बन गया। संबोधन में भी यही रूप बनते हैं। प्रत्यङ् प्रत्यञ्चौ प्रत्यञ्चः प्रत्याभ्याम् प्रत्याभ्यः प्रत्यञ्चम् प्रत्यञ्चौ प्रतीचः प्रतीचः प्रतीचोः प्रतीचाम् प्रतीचा प्रत्यग्भ्याम् प्रत्यग्भिः प्रतीचि प्रतीचोः प्रत्यक्षु प्रत्यग्भ्याम् प्रत्यग्भ्यः इसी प्रकार से प्राञ्च् एवं सम्यञ्च् शब्द भी चलते हैं। सूत्र में क्रुञ्च् को छोड़कर ऐसा क्यों कहा ? तो इस क्रुञ्च् में अघुट् स्वर और व्यंजन के आने पर अनुषंग का लोप नहीं होता। क्रुङ् + सु ङ से परे सकार को षकार हो जाता है // 264 // अत: क्रुषु बना। क्रुञ्चः क्रुभ्याम् क्रुभ्यः क्रुश्चम् क्रुञ्चौ। कुचाम् क्रुभ्याम् क्रुभिः क्रुषु क्रुझ्याम् क्रुङ्भ्यः प्रतीचः प्रतीचे क्रुञ्चोः क्रुश्चा क्रुञ्चि क्रुश्चोः