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________________ 84 कातन्त्ररूपमाला सर्वापहारिलोप: / कृत्तद्धितसमासाश्चेति लिङ्गसंज्ञा / यत्र गत्यर्थस्तत्र अनुषङ्गश्चाक्रुञ्चेत् इत्यनुषगलोप: / यत्र पूजार्थस्तत्र नाञ्चे: पूजायामिति अघुट्स्वरे व्यञ्जने अनुषगलोपो न भवति / अदव्यञ्च्शब्दस्य तु भेदः / अञ्च अदस्पूर्व:-अमुमश्चतीति क्विप् चेति क्विप् प्रत्ययः / क्विपि सति विष्वग्देवयोश्चान्त्यस्वरादेरव्यञ्चतौ क्वौ // 266 // विष्वग्देवयोः सर्वनाम्नश्चान्त्यस्वरादेरवयवश्चाञ्चतौ क्विबन्ते परेऽदिरादेशो भवति। इति सकारसहितस्य अकारस्य अदिरादेशः / इवों यत्वं / अदव्यञ्च इति स्थिते सति अदव्यञ्चो दस्य बहुलं // 267 // अव्यञ्चो दकारस्य बहुलं मकारो भवति, मात् परस्य रस्य उत्वं च। अदमुयङ् / अदमुयश्चौ / अदमुयश्चः / एवं सम्बुद्धौ / अदमुयञ्च / अदमुयञ्चौ / _ 'प्र' उपसर्गपूर्वक अञ्चति है, क्विप् प्रत्यय का सर्वापहारी लोप 'कृत्तद्धितसमासाश्च' सूत्र से लिंग संज्ञा होकर प्राञ्च बना। जब इस प्राञ्च् का गति अर्थ लेंगे तब शसादि विभक्ति के आने पर / 'अनुषंगश्चाक्रुश्चेत्' सूत्र से अघुट् स्वर और व्यञ्जनादि विभक्तियों के आने पर अनुषंग का लोप होगा।' अत: उपर्युक्त प्रकार से दो तरह से रूप चलते हैं। अदयञ्च शब्द में कुछ भेद हैंयहाँ भी अञ्चु धातु गति और पूजन अर्थ में है। अदस् शब्दपूर्वक अञ्च धातु से अमुम् अञ्चति इस प्रकार से 'क्विप्' इस ६५६वें सूत्र से क्विप् प्रत्यय हुआ एवं क्विप् प्रत्यय के होने पर आगे का सूत्र लगता है। अञ्च धातु से क्विप् प्रत्यय के आने पर विष्वक, देव और सर्वनाम के अन्त्य स्वर की आदि के अवयव को 'अद्रि' आदेश हो जाता है // 266 // ___ यहाँ पर अदस् शब्द सर्वनाम है अत: इसके अवयव-सकार सहित दकार के अंकार को 'अद्रि' आदेश हो गया तब अदद्रि+अञ्च् / इ वर्ण को य् होकर 'अदाञ्च' बन गया। अदाञ्च के दकार को बहुलता से मकार हो जाता है // 267 // __ और मकार से परे रकार को उकार हो जाता है तब अदमु इकार को य् होकर अञ्च् मिलकर अदमुयञ्च बना। अर्थात् अद द्रि+ अञ्च है। द्रि में तीन अक्षर हैं। द् को 'म्' र को 'उ' और इ को 'य' आदेश हो गया। अदमुय्+अञ्च=अदमुयञ्च् बना। इसी विषय में आगे के श्लोक का अर्थ देखिये ! श्लोकार्थ कोई आचार्य पर के दकार को मकार एवं कोई आचार्य पूर्व के दकार को मकार करते है एवं कोई आचार्य दोनों ही दकार को मकार स्वीकार करते हैं तथा कोई आचार्य दोनों ही दकारों को मकार नहीं मानते हैं अत: इस अदस् शब्द से अञ्च् धातु के आने पर चार प्रकार के रूप बन जाते हैं / प्रथम पर के दकार को मकार करने पर 'अदमुयञ्च' द्वितीय-पूर्व के दकार को मकार करने पर अमुश्च / तृतीय में दोनों ही दकारों को मकार करने पर 'अमुमुयञ्च' चतुर्थ में दोनों ही दकारों को मकार न करने पर 'अदयश्च' ऐसे चार रूप बने हैं अब 'कृत्तद्धित समासाच' से लिंग संज्ञा होकर सि आदि विभक्तियाँ आकर क्रम से एक-एक के रूप चलेंगे।
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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