________________ स्वरान्ता: नपुंसकलिङ्गाः यन्निमित्तमुपादाय पुंसि लिने प्रवर्तते। क्लीबवृत्तौ तदेव स्यात्तद्धि भाषितपुंसकम् / / 1 / / शुचि भूमिगतं तोयं शुचिर्नारी पतिव्रता। शुचिर्धर्मपरो राजा ब्रह्मचारी सदा शुचिः / / 2 / / शुच्या, शुचिना। शुचिभ्यां। शुचिभिः / शुचिने, शुचये। शुचिभ्याम् / शुचिभ्यः / इत्यादि / द्विशब्दस्य तु भेदः / त्यदाद्यत्वं औरीमिति ईत्वं च। द्वे। हे द्वे / द्वे / द्वाभ्याम् / द्वाभ्याम् / द्वाभ्याम्। द्वयोः। द्वयोः। त्रिशब्दस्य जस्शसोर्वारिशब्दवत् / त्रीणि। त्रीणि। त्रिभिः / अन्यत्र पुंलिङ्गवत् इति इकारान्ताः। ईकारान्तो नपुंसकलिङ्गो ग्रामणीशब्दः। तस्य स्वरो ह्रस्वो नपुंसके इति ह्रस्वत्वे शुचिशब्दवत् / टादौ भाषितपुंस्कं पुंवद्भांवो भवति विकल्पेन। ग्रामणि। ग्रामणिनी। ग्रामणीनि। पुनरपि-ग्रामणि। ग्रामणिनी। ग्रामणीनि / ग्रामणिना। अनेकाक्षरयोस्त्वसंयोगाद् य्वौ इति यत्वम् / ग्रामण्या। ग्रामणिभ्याम् / ग्रामणिभिः / ग्रामणिने / ग्रामणिभ्याम् / ग्रामणिभ्यः / इत्यादि / आमिनुरागमः / दीर्घमामि सनौ इति दीर्घः / ग्रामणीनाम् / पुंवद्भावे / ग्रामण्याम् / ग्रामणिनि / पुंवति–नियो डिराम् इति आम्। यत्त्वं पूर्ववत् / ग्रामण्याम् / ग्रामणिनोः, ग्रामण्योः / ग्रामणिषु / सम्बोधने-नाम्यन्तचतुरां वा। हे ग्रामणे, हे ग्रामणि / हे ग्रामणिनी। हे ग्रामणीनि / एवमग्रणी सेनानीप्रभृतयः // इति ईकारान्ता / उकारान्तो नपुंसकलिङ्गो वस्तुशब्दः / स च वारिशब्दवत् / वस्तु / वस्तुनी / वस्तूनि / सम्बोधने-हे वस्तु, हे वस्तो। हे वस्तुनी / हे वस्तूनि / पुनरपि / टादौ स्वरे परे नित्यं नपुंसकं / आमि परे-आमि च नुः / दीर्घमामि सनौ इति दीर्घः / वस्तूनां / वस्तुनि / वस्तुनोः / वस्तुषु / मृदुशब्दस्य प्रथमाद्वितीययोर्वारिशब्दवत्। मृदु। श्लोकार्थ—जो शब्द जिस निमित्त को लेकर के पुरुष लिंग में प्रवृत्ति करता है और वही नपुंसक लिंग में भी चल जाता है उसे भाषित पुंस्क कहते हैं // . . अर्थात् जो शब्द स्वयं में पुल्लिंग हैं, किन्तु निमित्त से नपुंसक लिंग में भी चल जाता है वह भाषित पुंस्क है। उदाहरण के लिए देखिये। श्लोकार्थ-भूमिगत जल पवित्र है, पतिव्रता स्त्री पवित्र है, धर्म में तत्पर राजा पवित्र है एवं ब्रह्मचारी जन सदा पवित्र हैं। . इस श्लोक में एक शुचि शब्द तीन के निमित्त या विशेषण से तीन लिंगों में बदल गया। जैसे-तोय शब्द नपुंसक का विशेषण 'शुचि' शब्द नपुंसक लिंग हो गया। पतिव्रता नारी का विशेषण 'शुचि:' शब्द स्त्रीलिंग हो गया और राजा का विशेषण 'शुचि:' शब्द पुल्लिग में चल गया है। शुचि+टा एक बार पुल्लिंगवत् में 'अस्त्रियां टा ना' सूत्र से 'ना' हुआ दूसरी बार 'नामिन: स्वरे' से न होकर शुचिना बना। शुचि+ ङे पुल्लिग में 'डे' सूत्र से इ को ए होकर शुचये अन्यथा शुचिने बना। शुचि शुचिनी शुचीनि / शुचये, शुचिने शुचिभ्याम् शुचिभ्यः हे शुचे, शुचि ! हे शुचिनी ! हे शुचीनि !| शुचेः, शुचिनः शुचिभ्याम् शुचिभ्यः शुचि शुचिनी शुचीनि / शुचेः, शुचिनः शुच्योः, शुचिनोः शुचीनाम् शुचिना शुचिभ्याम् शुचिभिः / शुचौ, शुचिनि शुच्योः, शुचिनोः शुचिषु 1. अत्र / त्रिषु लिंगेषु वर्तते / एकमेवार्थमाख्याति तद्धि भाषितपुंसकं / इति पाठोस्ति / उत्तरपद्यस्थोदाहरणैरयमेव समीचीनो भाति /